1570 के दशक में जब अकबर फतेहपुर सीकरी में थे, तब उन्होंने उलमा, ब्राह्मणों, जेसुइट पादरियों जो रोमन कैथोलिक थे और पारसियों के साथ धर्म पर चर्चा शुरू की। ये चर्चाएँ इबादतखाना में होती थीं। उन्हें विभिन्न लोगों के धर्म और सामाजिक रीति-रिवाजों में रुचि थी। विभिन्न धर्मों के लोगों के साथ अकबर की बातचीत ने उन्हें यह महसूस कराया कि जो धार्मिक विद्वान अनुष्ठान और सिद्धांत पर जोर देते थे, वे अक्सर कट्टरपंथी होते थे। उनकी शिक्षाएँ उनके प्रजा के बीच विभाजन और असामंजस्य पैदा करती थीं। इसने अंततः अकबर को सुलह-ए-कुल या "सार्वभौमिक शांति" के विचार तक पहुंचाया। सहिष्णुता का यह विचार उनके राज्य में विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच भेदभाव नहीं करता था। इसके बजाय, यह नैतिकता की एक ऐसी प्रणाली पर केंद्रित था - ईमानदारी, न्याय, शांति - जो सार्वभौमिक रूप से लागू थी। अबुल फजल ने अकबर की इस सुलह-ए-कुल की विचारधारा के इर्द-गिर्द शासन की एक दृष्टि तैयार करने में मदद की। इस शासन के सिद्धांत का पालन जहांगीर और शाहजहां ने भी किया।
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