१३वीं शताब्दी के आंध्र प्रदेश के संत आचार्य निंबार्क को द्वैताद्वैत (एकता में द्वैत) या भेदाभेद (अंतर में अनंतर) की वैष्णव धर्मशास्त्र परंपरा के प्रचारक के रूप में जाना जाता है। उनके अनुसार ब्रह्म, आत्मा और संसार एक ही होते हुए भी भिन्न हैं। विलय के बाद भी वे अलग बने रहते हैं। वे वैष्णव संप्रदाय की सनक परंपरा के प्रवर्तक थे। उनके प्रमुख ग्रंथों में वेदांत पारिजात सौरभ (ब्रह्मसूत्रों पर एक संक्षिप्त व्याख्या), दशश्लोकी, श्रीकृष्णस्तवराज और मध्वमुखवर्धन शामिल हैं।
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