बी. आर. अंबेडकर ने दलित वर्गों के लिए दिए गए पुरस्कार का समर्थन किया, लेकिन गांधी ने 20 सितंबर 1932 से येरवडा जेल में इसके विरोध में अनिश्चितकालीन उपवास शुरू किया। उनका मानना था कि इससे हिंदू समाज विभाजित होगा और यह भारतीय एकता व राष्ट्रवाद पर आघात होगा। दलितों को अलग राजनीतिक पहचान देने से वे हमेशा अछूत बने रहेंगे और छुआछूत खत्म करने की कोशिश कमजोर पड़ जाएगी।
राजाजी, राजेंद्र प्रसाद, मदन मोहन मालवीय, रवींद्रनाथ टैगोर और तेज बहादुर सप्रू जैसे कई नेता छुआछूत के खिलाफ सक्रिय हो गए। मंदिरों को दलितों के लिए खोलने का आह्वान किया गया और 'अस्पृश्यता उन्मूलन संघ' की स्थापना हुई। अंततः 24 सितंबर 1932 को गांधी और डॉ. बी. आर. अंबेडकर के बीच पूना समझौता हुआ, जिसमें एकल हिंदू मतदाता समूह तय किया गया और दलितों के लिए इसमें आरक्षित सीटें सुनिश्चित की गईं। ब्रिटिश सरकार ने इसे सांप्रदायिक पुरस्कार में संशोधन के रूप में स्वीकार किया।
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