2006 मुंबई लोकल ट्रेन ब्लास्ट केस: बॉम्बे हाईकोर्ट ने सभी 12 दोषियों को किया बरी

भारत के सबसे चर्चित आतंकवादी मामलों में से एक, 2006 मुंबई लोकल ट्रेन ब्लास्ट केस में एक बड़ा कानूनी मोड़ आया है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस सप्ताह विशेष MCOCA अदालत द्वारा दोषी ठहराए गए 12 में से सभी आरोपियों को बरी कर दिया। यह फैसला लगभग 44,000 पृष्ठों के साक्ष्यों की गहन जांच के बाद आया, जो विशेष अदालत की 2015 में दी गई सजा से बिल्कुल भिन्न था। इस फैसले ने भारतीय न्याय व्यवस्था और आतंकी मामलों में सबूतों की विश्वसनीयता पर एक नई बहस को जन्म दिया है।

कब और क्या हुआ था?

11 जुलाई 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेनों में सात बम धमाके हुए थे, जिनमें 189 लोग मारे गए और 800 से अधिक घायल हुए। इसके बाद 13 लोगों को गिरफ़्तार किया गया, जिनमें से 12 को 2015 में विशेष अदालत ने दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। तेरहवें आरोपी को उसी समय बरी कर दिया गया था।

हाईकोर्ट और स्पेशल कोर्ट के निर्णयों में अंतर

बॉम्बे हाईकोर्ट और विशेष MCOCA कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर भिन्न राय दी:

  • स्वीकार्य बयान (Confessional Statements): हाईकोर्ट ने कहा कि आरोपियों से जबरन यातना देकर बयान लिए गए थे और वे विश्वसनीय नहीं थे। दूसरी ओर, विशेष अदालत ने इन्हें “सच्चे और विश्वास योग्य” बताते हुए दोष सिद्धि का आधार बनाया।
  • हिरासत में यातना का आरोप: हाईकोर्ट ने स्वीकार किया कि आरोपियों को यातना दी गई थी, जबकि विशेष अदालत ने इसे “कानूनी चालाकी” कहकर खारिज कर दिया।
  • कॉल डाटा रिकॉर्ड (CDRs): हाईकोर्ट ने अभियोजन की ओर से कॉल डाटा पेश न करने और उसके नष्ट होने पर गंभीर प्रश्न उठाए, जबकि विशेष अदालत ने इसे महत्वपूर्ण साक्ष्य नहीं माना।
  • गवाहों की विश्वसनीयता: हाईकोर्ट ने मुख्य गवाहों की पहचान और समय पर सामने न आने को लेकर उनके बयानों को अविश्वसनीय बताया, वहीं विशेष अदालत ने इन्हें विश्वसनीय मानते हुए दोष सिद्ध किया।
  • पहचान परेड (Test Identification Parade): हाईकोर्ट ने माना कि पहचान परेड संचालित करने वाले अधिकारी के पास उस समय वैध अधिकार नहीं थे, जिससे प्रक्रिया अमान्य हो गई। इसके विपरीत, विशेष अदालत ने कहा कि अधिकारी वैध रूप से नियुक्त था।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • 11 जुलाई 2006 को मुंबई की पश्चिमी रेलवे की सात लोकल ट्रेनों में सिलसिलेवार धमाके हुए थे।
  • इस केस में महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (MCOCA) के तहत मुकदमा चलाया गया था।
  • बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2024 में इस मामले की पुनः सुनवाई शुरू की थी।
  • MCOCA के तहत पुलिस अधिकारी के समक्ष दिया गया कबूलनामा भी सबूत के रूप में मान्य होता है, जो सामान्य मामलों में नहीं होता।

इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में भी कानूनी प्रक्रियाओं की पूर्ण निष्पक्षता और सबूतों की गहनता अत्यंत आवश्यक है। जहां विशेष अदालत ने आरोपियों को दोषी ठहराते हुए कठोर सजा सुनाई थी, वहीं हाईकोर्ट ने सबूतों की वैधता और प्रक्रिया की शुद्धता पर जोर देते हुए सभी को बरी किया। यह निर्णय न केवल भारतीय न्यायिक प्रणाली की शक्ति को दर्शाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि न्याय पाने की प्रक्रिया में निरंतर पुनरीक्षण और पारदर्शिता कितनी जरूरी है।

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