सलवा जुडूम मामला: सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार को अवमानना से दी राहत

सलवा जुडूम मामला: सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार को अवमानना से दी राहत

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में एक अहम फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया कि 2011 के आदेश के बाद छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा पारित कानून को अदालत की अवमानना नहीं माना जा सकता। यह निर्णय न्यायपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों के संतुलन की संवैधानिक व्याख्या का महत्वपूर्ण उदाहरण है।

2011 का सुप्रीम कोर्ट आदेश क्या था?

5 जुलाई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक आदेश में छत्तीसगढ़ सरकार को निर्देश दिया था कि वह माओवादी गतिविधियों से निपटने के लिए विशेष पुलिस अधिकारियों (SPOs) का प्रयोग तुरंत बंद करे। आदेश में यह भी कहा गया था:

  • सभी SPOs से हथियार वापस लिए जाएं।
  • सलवा जुडूम और कोया कमांडो जैसे समूहों की गतिविधियों पर रोक लगाई जाए।
  • भारत सरकार को भी निर्देश दिया गया था कि वह SPOs की भर्ती हेतु किसी प्रकार की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आर्थिक सहायता न दे।

अदालत ने माना था कि कम वेतन और अपर्याप्त प्रशिक्षण वाले SPOs की नियुक्ति संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है।

अवमानना याचिका क्यों दायर की गई?

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 पारित किया। इस अधिनियम में प्रावधान था कि एक सहायक बल गठित किया जाएगा जो सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने और माओवादी हिंसा से निपटने में सुरक्षा बलों की सहायता करेगा। अधिनियम में यह भी स्पष्ट किया गया कि:

  • सहायक बल के सदस्य ऑपरेशन की अग्रिम पंक्तियों में तैनात नहीं होंगे।
  • वे हमेशा नियमित सुरक्षा बलों की निगरानी में कार्य करेंगे।
  • छह माह का अनिवार्य प्रशिक्षण भी दिया जाएगा।

हालांकि, याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि यह अधिनियम सुप्रीम कोर्ट के मूल आदेश की भावना के विपरीत है और इसलिए यह अवमानना है।

सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना याचिका क्यों खारिज की?

अदालत ने याचिका खारिज करते हुए निम्नलिखित बिंदु स्पष्ट किए:

  1. कोर्ट के निर्देशों का पालन हुआ: छत्तीसगढ़ सरकार ने अदालत के आदेशों का पालन किया और उसकी रिपोर्ट भी अदालत में जमा की गई।
  2. विधानमंडल की स्वतंत्रता: हर राज्य की विधायिका को अपने क्षेत्राधिकार में कानून बनाने का पूर्ण अधिकार है, जब तक वह संविधान के विरुद्ध न हो।
  3. संविधान में शक्तियों का विभाजन: अदालत ने दोहराया कि कोई भी कानून, चाहे वह संसद या राज्य विधानसभा द्वारा बना हो, केवल विधायी क्षमता या संवैधानिक वैधता के आधार पर ही चुनौती दी जा सकती है, अवमानना के आधार पर नहीं।
  4. पूर्व मामलों का हवाला: इंडियन एल्युमिनियम कंपनी बनाम केरल राज्य (1996) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि संविधान द्वारा स्थापित तीन प्रमुख संस्थाओं के बीच संतुलन बनाए रखना अनिवार्य है।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • सलवा जुडूम एक सशस्त्र आंदोलन था जिसे 2005 में माओवादियों के खिलाफ शुरू किया गया था।
  • विशेष पुलिस अधिकारी (SPO) वे आम नागरिक होते हैं जिन्हें माओवादी क्षेत्रों में सुरक्षा कार्यों के लिए भर्ती किया गया था।
  • अनुच्छेद 14 और 21 भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों के तहत आते हैं और नागरिकों को समानता व जीवन की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं।
  • शक्तियों का विभाजन सिद्धांत भारत के लोकतंत्र का मूल स्तंभ है, जिसमें विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की सीमाएं तय की गई हैं।

यह निर्णय केवल छत्तीसगढ़ राज्य के SPOs से संबंधित नहीं, बल्कि न्यायपालिका और विधायिका के बीच की संवैधानिक सीमाओं और संतुलन का प्रतीक है। यह स्पष्ट करता है कि अदालत के आदेशों के अनुपालन के बाद यदि विधायिका नया कानून बनाती है, तो उसे अवमानना नहीं माना जा सकता — जब तक वह कानून संविधान का उल्लंघन न करता हो।

Originally written on July 9, 2025 and last modified on July 9, 2025.

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