फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन (FGD) से छूट पर केंद्र सरकार का स्पष्टीकरण: वैज्ञानिक दृष्टिकोण या पर्यावरणीय ढील?

केंद्र सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हाल ही में देश के अधिकांश ताप विद्युत संयंत्रों को फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन (FGD) प्रणाली लगाने से छूट दी है। सोमवार, 14 जुलाई 2025 को मंत्रालय ने एक आधिकारिक नोट जारी कर स्पष्ट किया कि यह निर्णय “एक वैज्ञानिक रूप से उचित, लक्षित, लागत-प्रभावी और जलवायु-संगत विनियमन” की दिशा में एक बदलाव है — न कि पर्यावरणीय सुरक्षा उपायों का कोई पीछे हटना।
क्या है FGD और इसका महत्त्व?
FGD प्रणाली का उद्देश्य कोयला आधारित संयंत्रों से निकलने वाले सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) उत्सर्जन को कम करना होता है। 2015 में इसे सभी ताप विद्युत संयंत्रों के लिए अनिवार्य किया गया था। लेकिन अब तक भारत के लगभग 180 कोयला संयंत्रों में केवल 8% ने ही FGD प्रणाली लगाई है। अन्य संयंत्रों को बार-बार विस्तार दिए गए हैं, जिनमें लागत और उपकरणों की सीमित उपलब्धता मुख्य कारण रहे हैं।
नई नीति में क्या बदला है?
नवीन आदेश के अनुसार, अब केवल 22% संयंत्रों — जो मुख्य शहरों या खराब वायु गुणवत्ता वाले क्षेत्रों में स्थित हैं — को FGD सिस्टम लगाना अनिवार्य होगा। बाकी 78% संयंत्रों को इस नियम से छूट दी गई है। मंत्रालय के अनुसार:
- भारत का वार्षिक SO₂ मानक (50 माइक्रोग्राम/क्यूबिक मीटर) जापान, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय संघ से अधिक सख्त है।
- 2023 के आंकड़ों के अनुसार, 492 शहरों में से केवल दो (देहरादून और कोलार) SO₂ मानकों का उल्लंघन कर रहे हैं।
- भारतीय कोयला स्वाभाविक रूप से कम सल्फर युक्त है (0.5%), जिससे SO₂ उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम होता है।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- FGD प्रणाली की लागत ₹1.2 करोड़ प्रति मेगावॉट है; यदि सभी संयंत्रों में इसे लगाया जाए, तो कुल खर्च ₹2.54 लाख करोड़ हो सकता है।
- ‘कैटेगरी A’ संयंत्र: दिल्ली-एनसीआर या 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहरों के 10 किमी दायरे में स्थित हैं — इन्हें 2027 तक FGD लगाना होगा।
- ‘कैटेगरी B’ संयंत्र: गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों या नॉन-अटेनमेंट सिटीज़ (NACs) में आते हैं — इनमें से कुछ को विशेषज्ञ समिति की सिफारिश पर FGD लगाना होगा, समयसीमा 2028 है।
- भारत में लगभग 600 तापीय विद्युत इकाइयाँ हैं, जिनमें से 78% अब FGD लगाने से छूट पा चुकी हैं।
नीति में तर्क और विवाद
सरकार का तर्क है कि SO₂ का PM2.5 प्रदूषण पर सीमित प्रभाव है और FGD लगाने पर व्यय अनुपातहीन रूप से अधिक है जबकि लाभ सीमित हैं। मंत्रालय ने यह भी दावा किया कि FGD तकनीक और गैर-FGD संयंत्रों वाले शहरों के वायु गुणवत्ता आंकड़ों में विशेष अंतर नहीं पाया गया।
हालांकि पर्यावरणविदों का तर्क है कि यह निर्णय दीर्घकालीन स्वास्थ्य और पर्यावरणीय दृष्टि से चिंता का विषय है। वायु प्रदूषण और फेफड़ों की बीमारियों में बढ़ोतरी को देखते हुए इस तरह की छूट भविष्य में और अधिक गंभीर परिणाम ला सकती है।
इस निर्णय ने पर्यावरण संरक्षण बनाम आर्थिक व्यवहार्यता की बहस को एक बार फिर से उजागर कर दिया है। आने वाले वर्षों में, जब जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और स्पष्ट होंगे, तब यह नीतिगत बदलाव किस दिशा में भारत को ले जाएगा — यह देखना अहम होगा।