नागरी प्रचारिणी सभा: हिंदी भाषा आंदोलन की पुनरुत्थान गाथा

महाराष्ट्र में हिंदी भाषा को लेकर विवाद एक बार फिर चर्चा में है। हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य करने के निर्णय को राज्य सरकार ने वापस ले लिया है, और ठाकरे बंधु उद्धव व राज ठाकरे ने मराठी के समर्थन में एकजुट होकर केंद्र सरकार की भाषा नीति पर सवाल उठाए हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने भी इस मुद्दे पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। ऐसे समय में, हिंदी भाषा के ऐतिहासिक संघर्ष और नागरी प्रचारिणी सभा की भूमिका को पुनः समझना प्रासंगिक हो जाता है।
ब्रिटिश काल में हिंदी की स्थिति
मुगल काल में भारत की आधिकारिक भाषा फ़ारसी हुआ करती थी। ब्रिटिश शासन के आगमन के साथ भाषाई समीकरण बदलने लगे। 1832 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने निर्देश दिया कि न्याय की भाषा वह होनी चाहिए जिसे आम जनता समझ सके। इसके फलस्वरूप, स्थानीय भाषाओं ने फ़ारसी की जगह लेनी शुरू की। हालांकि, 1861 तक उत्तर-पश्चिमी प्रांतों और अवध जैसे क्षेत्रों में अंग्रेज़ी, उर्दू, और फ़ारसी ही प्रशासनिक भाषाएँ बनी रहीं।
देवनागरी लिपि ने 1890 के दशक में फ़ारसी लिपि की जगह लेनी शुरू की, जिसमें अंग्रेज़ अधिकारी एंटनी मैकडॉनल का योगदान महत्वपूर्ण रहा। इसी पृष्ठभूमि में, हिंदी भाषा को सशक्त करने के उद्देश्य से 1893 में बनारस में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई।
नागरी प्रचारिणी सभा की ऐतिहासिक भूमिका
नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना 16 जनवरी 1893 को श्याम सुंदर दास, पं. रामनारायण मिश्र, और ठाकुर शिवकुमार सिंह ने की थी। इसका मुख्य उद्देश्य हिंदी को न्यायालयों और सरकारी कार्यालयों की भाषा बनाना था। इसके लिए एक प्रामाणिक हिंदी शब्दकोश बनाने की योजना बनाई गई।
1908 से सभा ने गांव-गांव जाकर शब्द एकत्र करने का कार्य शुरू किया, जो 21 वर्षों तक चला। इसका परिणाम ‘शब्द सागर’ नामक 11 खंडों वाला विशाल शब्दकोश रहा, जिसका प्रकाशन 1929 में हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’, जो सभा द्वारा प्रकाशित हुआ, हिंदी साहित्य के अध्ययन में मील का पत्थर मानी जाती है।
सभा ने हिंदी में पुस्तकालय और पत्रिकाओं की स्थापना की। 1896 में ‘आर्य भाषा पुस्तकालय’ और 1900 में ‘सरस्वती’ पत्रिका की शुरुआत हुई, जिसके संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी बने।
आज के परिप्रेक्ष्य में सभा की पुनरुत्थान यात्रा
स्वतंत्रता के बाद भी सभा की भूमिका सक्रिय रही। पं. जवाहरलाल नेहरू इसके संरक्षक बने और ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ जैसी शोध पत्रिकाओं का निरंतर प्रकाशन होता रहा। परंतु 1970 के दशक में संस्था का काम धीमा पड़ गया, और प्रबंधन विवादों के चलते यह कानूनी जटिलताओं में फँस गई।
हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2024 में व्योमेश शुक्ला के नेतृत्व वाली समिति के पक्ष में फैसला सुनाया। इसके बाद मार्च 2025 में आचार्य शुक्ल का ऐतिहासिक ग्रंथ पुनः प्रकाशित किया गया। इसके साथ-साथ अमीर खुसरो की हिंदी कविताओं का संग्रह भी प्रकाशित हुआ, जिससे यह स्पष्ट होता है कि सभा अब फिर से हिंदी के उत्थान में सक्रिय भूमिका निभा रही है।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना 16 जनवरी 1893 को बनारस में हुई थी।
- सभा द्वारा प्रकाशित ‘शब्द सागर’ हिंदी का पहला विस्तृत शब्दकोश है, जिसमें 11 खंड हैं।
- ‘सरस्वती’ पत्रिका 1900 में शुरू हुई और इसका संपादन महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किया।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल की ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ को हिंदी आलोचना का आधार माना जाता है।
हिंदी भाषा का इतिहास केवल भाषायी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक संघर्षों से भी जुड़ा रहा है। नागरी प्रचारिणी सभा ने बिना किसी राजनीतिक आग्रह के हिंदी को एक साहित्यिक, प्रशासनिक और जनभाषा के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वर्तमान में जब भाषा को राजनीति का उपकरण बनाया जा रहा है, ऐसे में इस संस्था की सक्रियता हमें यह याद दिलाती है कि भाषा का असली उद्देश्य जनजुड़ाव, अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक सशक्तिकरण है।