डीएनए सबूत को लेकर सुप्रीम कोर्ट की नई गाइडलाइंस: न्याय प्रणाली में एक बड़ा सुधार

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक ऐतिहासिक निर्णय में देशभर में डीएनए सबूतों के प्रबंधन को लेकर मानक प्रक्रियाएं निर्धारित की हैं। यह निर्णय एक ऐसे मामले के बाद आया, जिसमें तमिलनाडु में 2011 में दो हत्याओं और एक बलात्कार के आरोपी व्यक्ति को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया। उसकी दोषसिद्धि पूरी तरह डीएनए सबूतों पर आधारित थी, जो कि प्रक्रिया की खामियों के चलते अविश्वसनीय मानी गई।

डीएनए सबूत की भूमिका और महत्व

क्राइम सीन से मिले जैविक नमूनों जैसे रक्त, वीर्य, लार या बालों के आधार पर संदिग्ध की पहचान के लिए डीएनए सैंपलिंग की जाती है। इसे संदिग्ध या पीड़ित के डीएनए से मिलाकर देखा जाता है। यदि नमूनों में पर्याप्त आनुवंशिक मिलान होता है, तो इसे अदालत में सशक्त सबूत माना जाता है। लेकिन, यदि संग्रहण, संरक्षण या विश्लेषण की प्रक्रिया में कोई गड़बड़ी हो, तो यह सबूत कमजोर या अमान्य साबित हो सकता है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी की गई प्रमुख गाइडलाइंस

  1. प्रशिक्षित कर्मियों द्वारा संग्रहण: जैविक नमूने केवल प्रशिक्षित और सुरक्षात्मक उपकरणों से लैस कर्मियों द्वारा ही एकत्र किए जाएं।
  2. सुरक्षित पैकेजिंग और लेबलिंग: संग्रह के तुरंत बाद नमूने को टेम्पर-प्रूफ कंटेनर में सील किया जाए और उसमें एफआईआर संख्या, तारीख, संबंधित धाराएं, जांच अधिकारी और पुलिस स्टेशन की जानकारी स्पष्ट रूप से अंकित हो।
  3. प्रमाणन और दस्तावेजीकरण: साक्ष्य पर चिकित्सक, जांच अधिकारी और स्वतंत्र गवाह के हस्ताक्षर अनिवार्य हों।
  4. 48 घंटे के भीतर परीक्षण स्थल पर भेजना: नमूनों को संबंधित फॉरेंसिक लैब में 48 घंटे के भीतर भेजा जाए और इसकी लिखित सूचना जांच अधिकारी द्वारा दर्ज की जाए।
  5. अनुमति के बिना छेड़छाड़ निषिद्ध: परीक्षण शुरू होने से पहले, किसी भी नमूने को बिना अदालत की अनुमति के खोलना, परिवर्तित करना या पुनः सील करना वर्जित होगा।
  6. चेन ऑफ कस्टडी रिकॉर्ड: साक्ष्य के हर स्थानांतरण और प्रक्रिया को एक लॉगबुक में दर्ज किया जाए ताकि उनकी प्रामाणिकता सुनिश्चित की जा सके।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • डीएनए (Deoxyribonucleic Acid) हर व्यक्ति का अनोखा आनुवंशिक पहचानकर्ता होता है।
  • भारत में फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं की निगरानी केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत होती है।
  • ‘चेन ऑफ कस्टडी’ का अभिप्राय यह है कि सबूत किस-किस के पास रहा और कब-कब स्थानांतरित हुआ, इसका पूरा रिकॉर्ड रखा जाए।
  • भारत में डीएनए टेक्नोलॉजी (यूज एंड एप्लीकेशन) रेगुलेशन बिल 2019 संसद में प्रस्तुत किया गया था, लेकिन अब तक कानून नहीं बना।

यह गाइडलाइंस न केवल डीएनए सबूत की विश्वसनीयता को सुनिश्चित करती हैं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता को भी सुदृढ़ करती हैं। पिछले वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहां वैज्ञानिक सबूतों की प्रक्रिया में खामी के चलते आरोपी बरी हो गए या दोषी छूट गए। सुप्रीम कोर्ट की यह पहल उन कमियों को दूर करने और विज्ञान आधारित न्याय प्रणाली को मजबूत करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

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