क्या रेगिस्तान सच में बंजर हैं? भारत में मरुस्थलों और घासभूमियों की पुनर्व्याख्या की ज़रूरत

अक्सर रेगिस्तानों को प्रकृति की असफलता के रूप में देखा जाता है — एक ऐसा परिदृश्य जिसे हरियाली से “सुधारना” आवश्यक माना जाता है। यही सोच वनीकरण, सिंचाई योजनाओं और जलवायु इंजीनियरिंग जैसी परियोजनाओं को जन्म देती है, जो रेगिस्तानों को ‘टूटे हुए पारिस्थितिक तंत्र’ मानकर उन्हें बदलने का प्रयास करती हैं। पर क्या वास्तव में रेगिस्तान किसी सुधार के मोहताज हैं?

रेगिस्तान: जीवन के कठोर परंतु संतुलित रूप

वास्तव में, रेगिस्तान प्राचीन, विविध और सहनशील पारिस्थितिक तंत्र हैं। ये पृथ्वी की भूमि सतह का लगभग एक-तिहाई हिस्सा घेरे हुए हैं और यहां जीवन के अद्वितीय रूप पनपते हैं — चाहे वो वनस्पति हो, जीव-जंतु हों या मानव संस्कृतियाँ। इतिहास बताता है कि मेसोपोटामिया, मिस्र और सिंधु घाटी जैसी प्रारंभिक सभ्यताएँ भी रेगिस्तानी इलाकों में फली-फूली थीं। इन कठोर परिस्थितियों ने ही मनुष्य को जटिल समाज और सिंचाई तकनीकों के विकास की प्रेरणा दी।

भारत में खुली ज़मीनों की स्थिति

भारत में खुले प्राकृतिक तंत्रों जैसे कि घासभूमि, सवाना, झाड़ीदार भूमि और खुले वन को नीतियों में नजरअंदाज किया गया है। लाखों हेक्टेयर भूमि को ‘वेस्टलैंड’ घोषित किया गया — एक ऐसा शब्द जो उपनिवेशकालीन भू-उपयोग श्रेणियों से लिया गया है। ‘वेस्टलैंड’ यानी वह भूमि जिसे सुधारे जाने की ज़रूरत है — चाहे पेड़ लगाकर, कृषि के लिए परिवर्तित कर या उद्योग के लिए समतल कर।
इस सोच का सीधा असर भारत के रेगिस्तानों और घासभूमियों पर पड़ा है। यह न केवल जैव विविधता को नुकसान पहुंचाता है, बल्कि उन करोड़ों चरवाहा समुदायों की आजीविका और पारंपरिक ज्ञान प्रणाली को भी कमजोर करता है जो इन इलाकों पर निर्भर करते हैं।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • भारत में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, कराकल, इंडियन वुल्फ जैसी दुर्लभ प्रजातियाँ रेगिस्तान और घासभूमियों में पाई जाती हैं।
  • ये पारिस्थितिक तंत्र भूमिगत कार्बन भंडारण में सहायक होते हैं, जबकि सामान्य वन अधिकतर सतही कार्बन संग्रह करते हैं।
  • चरवाहा समुदाय जैसे धनगर, रबारी और कुरुबा इन क्षेत्रों के परंपरागत संरक्षक रहे हैं।
  • ‘वर्ल्ड डे टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन एंड ड्रॉट’ हर साल 17 जून को मनाया जाता है।

आगे की राह

हमें रेगिस्तानों को ‘हरियाली में बदलने’ के प्रयासों की बजाय यह समझना होगा कि सीमित संसाधनों में भी जीवन कैसे फूला-फला सकता है। भूमि क्षरण की समस्या से निपटने के लिए ज़रूरी है कि हम स्थानीय वनस्पति, मिट्टी और नमी संरक्षण, और पारंपरिक ज्ञान पर आधारित उपाय अपनाएँ — जैसे जल संचयन, घुमंतू चराई व्यवस्था, और प्राकृतिक पुनरुत्पत्ति की रक्षा।
इसके साथ ही हमें ऐसी नीतियाँ विकसित करनी होंगी जो पारिस्थितिकी तंत्र की विविधता को मान्यता दें, मृदा कार्बन भंडारण को प्रोत्साहन दें और चरवाहा जीवनशैली को संरक्षण प्रदान करें।
शायद अब समय आ गया है कि ‘डेजर्टिफिकेशन’ शब्द को फिर से परिभाषित किया जाए, और 17 जून को ‘वर्ल्ड डे टू कॉम्बैट लैंड डिग्रेडेशन’ कहा जाए — ताकि रेगिस्तानों को उनकी गरिमा लौटाई जा सके। क्योंकि एक जीवंत रेगिस्तान किसी असफल वृक्षारोपण योजना से कहीं अधिक मूल्यवान होता है।

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