अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति की सुप्रीम कोर्ट से राय की मांग: विधायी प्रक्रियाओं में समयसीमा पर संवैधानिक विमर्श

भारत के राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह मांगे जाने की प्रक्रिया एक बार फिर सुर्खियों में है। यह घटनाक्रम अप्रैल 2024 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए उस फैसले के बाद सामने आया है, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए तीन महीने की समयसीमा निर्धारित की गई थी। यह संवैधानिक विमर्श संघीय ढांचे, विधायी प्रक्रिया और न्यायपालिका की भूमिका को लेकर महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े करता है।

अनुच्छेद 143 क्या है?

अनुच्छेद 143 भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वे किसी ऐसे “कानूनी या तथ्यात्मक प्रश्न” पर सुप्रीम कोर्ट की राय ले सकते हैं जो “महत्वपूर्ण सार्वजनिक महत्व” का हो और जिस पर कोर्ट की राय लेना उचित समझा जाए। यह राय बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन संवैधानिक मार्गदर्शन के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है।

राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए प्रमुख प्रश्न

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 13 मई को सुप्रीम कोर्ट से कुल 14 कानूनी प्रश्नों पर राय मांगी, जिनमें से अधिकांश अप्रैल 2024 के फैसले से जुड़े हैं। इनमें कुछ मुख्य प्रश्न निम्नलिखित हैं:

  • क्या सुप्रीम कोर्ट को केवल बड़ी पीठ ही “संविधान की व्याख्या” या “गंभीर कानूनी प्रश्न” सुन सकती है?
  • क्या अनुच्छेद 142 (न्याय को पूर्ण करने की शक्ति) का प्रयोग सीमित किया जाना चाहिए?
  • केंद्र-राज्य विवादों की सुनवाई की सीमाएं क्या हैं?

सुप्रीम कोर्ट की सलाह: बाध्यकारी नहीं, पर प्रभावशाली

सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी दो अवसरों पर राष्ट्रपति की राय का उत्तर नहीं दिया है — 1993 में राम जन्मभूमि मसले पर और 1982 में पाकिस्तान से लौटे नागरिकों के पुनर्वास से जुड़े विधेयक पर। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि अनुच्छेद 143 के तहत वह किसी पूर्व निर्णय की समीक्षा या उलटफेर नहीं कर सकता, क्योंकि यह उसकी “सलाहकार” और न कि “न्यायिक” भूमिका होती है।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • अनुच्छेद 143(1) का प्रयोग अब तक 15 से अधिक बार किया जा चुका है।
  • राष्ट्रपति की सलाह मांगने वाली पहली याचिका 1951 में दिल्ली हाईकोर्ट की वैधता पर थी।
  • अनुच्छेद 145(3) के अनुसार इस तरह के संदर्भ पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ सुनवाई करती है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने 2024 में कहा था कि राष्ट्रपति और राज्यपाल विधेयकों पर 3 महीने के भीतर निर्णय करें — यही निर्णय अब बहस का केंद्र बना है।

संविधान, न्यायपालिका और संसद के बीच की खींचतान

राज्यपालों द्वारा राज्य विधानसभाओं के विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित रखने की प्रवृत्ति, खासकर विपक्ष-शासित राज्यों में, संघीय ढांचे के लिए एक चुनौती बन गई है। सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल के निर्णय ने इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने का प्रयास किया, परंतु राष्ट्रपति द्वारा राय मांगने से यह स्पष्ट होता है कि केंद्र सरकार इस निर्णय को लेकर असहज है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि ने न्यायपालिका द्वारा “संसद की सर्वोच्चता” में हस्तक्षेप का मुद्दा उठाया है।
यह स्थिति संविधान के उस पुराने संघर्ष को पुनः जीवित करती है जो 1973 के केसवानंद भारती निर्णय में सामने आया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने संसद की संशोधन शक्ति को सीमित कर दिया था। अब एक बार फिर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच की सीमाएं स्पष्ट करने की ज़रूरत महसूस हो रही है।
यह संवैधानिक विमर्श केवल राष्ट्रपति, राज्यपाल और न्यायपालिका के अधिकारों तक सीमित नहीं है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के भविष्य, संघीय संतुलन और विधायी प्रक्रिया की पारदर्शिता पर भी गंभीर प्रभाव डालता है। सुप्रीम कोर्ट की राय इस विषय में मार्गदर्शक सिद्ध हो सकती है, भले ही वह बाध्यकारी न हो।

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