हिमालय में तबाही का चक्र: अब और देर नहीं — ज़रूरी है एक समर्पित आपदा प्रबंधन ढांचा

कभी वर्षा ऋतु भारत के खेतों और जंगलों के लिए जीवनदायिनी मानी जाती थी, लेकिन हिमालय के लिए यह अब डर और विनाश का प्रतीक बन चुकी है। 5 अगस्त, 2025 को उत्तरकाशी के धराली गांव में हुई भीषण क्लाउडबर्स्ट ने पूरे क्षेत्र को तबाह कर दिया। इस त्रासदी के कुछ ही समय बाद, जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में फिर से बादल फटा, सैकड़ों लोग लापता हो गए और बुनियादी ढांचे का भारी नुकसान हुआ। हिमाचल में तो एक ही सप्ताहांत में 19 क्लाउडबर्स्ट, 23 फ्लैश फ्लड और 16 भूस्खलन की घटनाएं दर्ज की गईं।

एक नाज़ुक क्षेत्र पर संकट के बादल

हिमालय भूगर्भीय रूप से युवा और संवेदनशील है — भूस्खलन, भूकंप और बाढ़ यहाँ सामान्य हैं। लेकिन हाल के वर्षों में इनकी आवृत्ति, तीव्रता और विनाशकारी प्रभाव कई गुना बढ़ गए हैं। जलवायु परिवर्तन, बर्फ के तेज़ी से पिघलने, और मानवजनित विकास ने इस स्थिति को और भी खतरनाक बना दिया है।

क्यों आज के हिमालयी आपदाएँ और अधिक घातक हैं?

  • जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर अस्थिर हो रहे हैं और Glacial Lake Outburst Floods (GLOFs) की संभावना बढ़ रही है।
  • बेतरतीब शहरीकरण और कंक्रीट निर्माण ने प्राकृतिक जल निकासी को बाधित कर दिया है।
  • बिना भूगर्भीय आकलन के निर्माण, खासकर हाइड्रोपावर परियोजनाएं, सड़कें और टनलें, पूरे नदी बेसिन को अस्थिर बना रही हैं।
  • वनों की कटाई और ध्वस्त पर्यावरण नियमन ने पहाड़ों को और कमज़ोर किया है।
  • बिल्डिंग कोड्स, ज़ोनिंग और पर्यावरणीय नियमों को लागू करने में प्रशासनिक लापरवाही है।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • 2013 के केदारनाथ और 2021 की उत्तराखंड त्रासदियाँ स्पष्ट चेतावनी थीं।
  • Disaster Impact Assessment (DIA) की अनिवार्यता की सिफारिश की गई थी, पर लागू नहीं की गई।
  • भारत का राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन ढांचा मजबूत होते हुए भी हिमालयी विशेषताओं के लिए उपयुक्त नहीं है।
  • हिमालय भारत के प्रमुख नदियों का उद्गम स्थल और जैव विविधता का भंडार है।

पुनरावृत्ति से सबक नहीं लिया गया

2013 और 2021 की आपदाओं के बाद भी न तो जोखिम क्षेत्र निर्धारण किया गया, न ही संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण पर रोक लगी। आज भी पर्वतीय शहरों में पुराने खतरनाक निर्माण पैटर्न जारी हैं। विकास की प्राथमिकता लाभ है, सुरक्षा नहीं।

एक समर्पित हिमालयी आपदा लचीलापन ढांचे की आवश्यकता

हिमालयी क्षेत्र के लिए अब एक “Himalayan Climate and Disaster Monitoring and Response Centre (HCDMRC)” की स्थापना की आवश्यकता है, जो निम्नलिखित 7-सूत्रीय कार्य योजना पर केंद्रित हो:

  1. हिमालय की सुरक्षा: पारिस्थितिकी के अनुकूल नियम लागू करना, अवैज्ञानिक निर्माण रोकना।
  2. सुरक्षित विकास: इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं को पर्यावरणीय यथार्थ से समन्वित करना।
  3. जोखिम की पहचान: वैज्ञानिक डेटा से हाई-रिस्क क्षेत्रों की स्पष्ट पहचान।
  4. स्मार्ट समाधान: इंजीनियरिंग तकनीकों के साथ प्रकृति-प्रेरित उपायों को अपनाना।
  5. सशक्त समुदाय: स्थानीय पंचायतों, स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित कर उन्हें आपदा प्रतिक्रिया की अग्रिम पंक्ति बनाना।
  6. त्वरित प्रतिक्रिया: उच्च ऊंचाई पर कार्यरत, प्रशिक्षित बचाव दलों की तैनाती।
  7. विज्ञान को क्रियान्वयन में लाना: प्रमुख अनुसंधान संस्थानों के साथ नीति निर्माण में वैज्ञानिक विशेषज्ञता को शामिल करना।

अब नहीं चेते तो…

हर साल हजारों लोग बेघर होते हैं, जानें जाती हैं, अरबों की संपत्ति का नुकसान होता है। पारिस्थितिक दृष्टि से नुकसान और भी गहरा है — वन नष्ट होते हैं, नदी मार्ग बदलते हैं, जैव विविधता संकट में है।
धराली और किश्तवाड़ की त्रासदियों को एक और बीता हुआ अध्याय मानने की गलती नहीं की जानी चाहिए। हमारे पास विज्ञान है, अनुभव हैं, चेतावनियाँ हैं — अब केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।
हिमालय को बचाना अब विकल्प नहीं, आवश्यकता है। अब नहीं तो कभी नहीं।

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