सुप्रीम कोर्ट ने बीडीए की “सहकारी मुकदमेबाज़ी” पर स्वतः संज्ञान लिया

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने बेंगलुरु विकास प्राधिकरण (BDA) के अधिकारियों द्वारा कथित “सहकारी मुकदमेबाज़ी” पर स्वतः संज्ञान लेते हुए संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक याचिका दायर करने का आदेश दिया है। यह मामला बेंगलुरु उत्तर तालुक की 3 एकड़ 33 गुंटा भूमि से संबंधित है, जिसमें न्यायालय ने बीडीए और याचिकाकर्ताओं के बीच मिलीभगत की आशंका जताई है।
सहकारी मुकदमेबाज़ी क्या है?
सहकारी या “कॉल्यूसिव” मुकदमेबाज़ी वह स्थिति होती है जिसमें पक्षकार वास्तव में एक-दूसरे के विरोधी नहीं होते, बल्कि वे आपसी सहयोग से एक ऐसा कानूनी निर्णय प्राप्त करना चाहते हैं जो सामान्य प्रक्रिया से संभव नहीं होता। इस तरह के मुकदमे न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग माने जाते हैं और इससे न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता पर प्रश्न उठता है।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी और निर्देश
31 जुलाई, 2025 के निर्णय में न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और अहसनुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने कहा कि इस मामले में आम नागरिकों को बीडीए द्वारा किए गए भूमि अधिग्रहण के लाभों से वंचित किया गया है। न्यायालय ने इसे “स्पष्ट सहकारी मुकदमेबाज़ी” बताते हुए कहा कि वह ऐसी स्थिति पर आंखें बंद नहीं कर सकता।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि भले ही इस मामले में आपराधिक शिकायत का कोई आधार नहीं मिला, फिर भी नागरिक और आपराधिक कार्यवाहियाँ एक साथ चल सकती हैं। साथ ही, पीठ ने यह कहा कि उच्च न्यायालय द्वारा अपनाया गया दृष्टिकोण गलत नहीं था, लेकिन ‘प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य’ मामले में तय दिशा-निर्देशों को सही ढंग से लागू नहीं किया गया।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- सहकारी मुकदमेबाज़ी में न्यायालय को भ्रमित करने और एक पूर्व-निर्धारित निर्णय प्राप्त करने की साजिश होती है।
- भारत में यदि कोई पक्ष यह सिद्ध कर दे कि वह उस सहकारी डिक्री का हिस्सा नहीं था और उसमें छल या मिलीभगत थी, तो वह डिक्री को चुनौती दे सकता है।
- अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट को “पूर्ण न्याय” करने की असाधारण शक्ति प्राप्त है।
- सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को बीडीए द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका के साथ जोड़ने का आदेश भी दिया है।
इस निर्णय से स्पष्ट है कि न्यायालय अब सरकारी एजेंसियों द्वारा न्याय प्रणाली के दुरुपयोग पर कड़ी निगरानी रख रहा है। सहकारी मुकदमेबाज़ी जैसी प्रवृत्तियाँ न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता को खतरे में डालती हैं और इसका असर सीधे नागरिकों के अधिकारों पर पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप भविष्य में ऐसे मामलों में कठोर दृष्टिकोण अपनाने का संकेत है।