यूपी में सरकारी स्कूलों के विलय पर विवाद: शिक्षा की पहुंच और सरकारी नीति के बीच संघर्ष

उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही में राज्य में कम नामांकन वाले सरकारी स्कूलों के विलय का फैसला लिया, जिसे लेकर विपक्षी दलों और शिक्षक संगठनों में तीव्र प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव और कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने इसे गरीब और वंचित वर्गों, विशेष रूप से बालिकाओं, की शिक्षा तक पहुंच में बाधा बताया है। कई जिलों में अभिभावकों और शिक्षकों ने इस कदम का विरोध भी किया है, हालांकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सरकार के इस फैसले को बरकरार रखा है।

स्कूल विलय का कारण और सरकारी तर्क

जून 2024 में यूपी के बेसिक शिक्षा विभाग ने 50 से कम नामांकन वाले स्कूलों को चिन्हित कर उन्हें समीप के बेहतर संसाधनयुक्त स्कूलों के साथ जोड़ने का निर्देश दिया। इसके पीछे सरकार का उद्देश्य संसाधनों और शिक्षकों का बेहतर उपयोग बताया गया है। विलय के बाद बचे स्कूल परिसरों में बालवाटिका (पूर्व-प्राथमिक कक्षाएं) चलाने की योजना है।
यह कदम पूरी तरह नया नहीं है; नीति आयोग ने 2017 में ओडिशा, मध्य प्रदेश और झारखंड में इसी प्रकार की परियोजना चलाई थी। एनईपी 2020 में भी स्कूल क्लस्टर बनाने की सिफारिश की गई है, ताकि संसाधनों का सामूहिक उपयोग हो सके।

शिक्षा नीति और ‘पड़ोस के स्कूल’ का विचार

शिक्षा के क्षेत्र में भारत की राष्ट्रीय नीतियों ने सदा सर्वसुलभ प्राथमिक शिक्षा को प्राथमिकता दी है। 2009 में लागू हुए ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम’ (RTE) के तहत 6 से 14 वर्ष के बच्चों को ‘पड़ोस के स्कूल’ में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार मिला। यूपी की RTE नियमावली के अनुसार कक्षा 1 से 5 के लिए 1 किलोमीटर और कक्षा 6 से 8 के लिए 3 किलोमीटर के दायरे में स्कूल की व्यवस्था होनी चाहिए।
इस अवधारणा का उद्देश्य न केवल भौगोलिक पहुंच सुनिश्चित करना था, बल्कि सामाजिक समानता भी थी, जिससे गरीब और अमीर बच्चों के बीच स्कूली विभाजन समाप्त हो सके।

बदलती परिस्थितियाँ और नई शिक्षा नीति की दृष्टि

NEP 2020 के अनुसार, देश में बहुत छोटे आकार के स्कूलों की संख्या तेजी से बढ़ी है, जिनमें संसाधन और शिक्षकों की भारी कमी है। UDISE+ 2023-24 के आंकड़ों के अनुसार, देशभर में 12,954 स्कूलों में नामांकन शून्य है, जबकि 1.10 लाख स्कूलों में केवल एक शिक्षक हैं।
यह नीतिगत समस्या है जहां एक ही शिक्षक को कई कक्षाएं और विषय पढ़ाने पड़ते हैं, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता पर असर पड़ता है। NEP ने इस समस्या के समाधान के लिए 2025 तक स्कूलों के पुनर्गठन और क्लस्टर व्यवस्था लागू करने की सिफारिश की है।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • यूपी में सरकारी स्कूलों की संख्या 2018-19 में 1.63 लाख से घटकर 2023-24 में 1.37 लाख रह गई।
  • इसी अवधि में निजी स्कूलों की संख्या 87,433 से बढ़कर 96,635 हो गई।
  • UDISE+ 2023-24 के अनुसार, प्राथमिक स्तर पर सकल नामांकन अनुपात (GER) 91.7% है।
  • RTE अधिनियम 2009 के तहत, तीन साल में हर मोहल्ले के भीतर स्कूल खोलने की बाध्यता थी।

क्यों उठ रही है आलोचना?

विपक्षी नेताओं, शिक्षकों और अभिभावकों का कहना है कि स्कूल विलय से बच्चों, विशेषकर बालिकाओं, को दूर-दराज़ के स्कूलों तक जाना पड़ेगा, जिससे शिक्षा तक पहुंच कठिन होगी और ड्रॉपआउट दर बढ़ सकती है। इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर याचिकाओं में इसे RTE नियमों का उल्लंघन बताया गया, पर कोर्ट ने सीमित संसाधनों और ज़मीन की उपलब्धता को देखते हुए याचिकाएं खारिज कर दीं।
UP सरकार का यह कदम संसाधनों के बेहतर उपयोग और गुणवत्ता सुधार के लिए उठाया गया हो सकता है, लेकिन इसके सामाजिक और व्यावहारिक प्रभावों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जरूरत है कि शिक्षा की पहुंच, विशेषकर कमजोर वर्गों के बच्चों तक, बाधित न हो और समावेशी दृष्टिकोण के साथ नई शिक्षा व्यवस्था लागू की जाए।

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