महाराष्ट्र में तीन-भाषा नीति पर विवाद: मराठी अस्मिता के नाम पर ठाकरे बंधुओं की सियासी एकता

2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के तहत प्रस्तावित तीन-भाषा फॉर्मूला ने महाराष्ट्र की राजनीति में नया तूफान खड़ा कर दिया है। इसी मुद्दे ने राज्य के दो कट्टर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और चचेरे भाई — उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे — को 20 वर्षों बाद एक मंच पर ला खड़ा किया है। 5 जुलाई 2025 को मुंबई में आयोजित एक “विजय रैली” में दोनों नेताओं ने राज्य सरकार द्वारा हिंदी को कक्षा 1 से अनिवार्य करने वाले आदेशों की वापसी का स्वागत किया और “मराठी अस्मिता” के नाम पर एकजुटता दिखाई।
हिंदी थोपने का आरोप और मुंबई का संदर्भ
राज ठाकरे ने बीजेपी सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि हिंदी थोपी जा रही है और यह एक “राजनीतिक प्रयोग” है ताकि मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने की जनभावना को परखा जा सके। उद्धव ठाकरे ने भी इसे महाराष्ट्र की अस्मिता पर आघात बताया और आरोप लगाया कि केंद्र सरकार की योजनाएँ मुंबई को कमजोर करने की ओर इशारा करती हैं।
विपक्षी दलों ने मुंबई से बाहर शिफ्ट किए गए प्रमुख प्रोजेक्ट्स — जैसे वेदांता-फॉक्सकॉन सेमीकंडक्टर संयंत्र और टाटा-एयरबस विमान परियोजना — को इस साजिश का प्रमाण बताया। इसके अतिरिक्त, मुंबई में प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र (IFSC) परियोजना को गुजरात के GIFT सिटी से पीछे छोड़ दिया गया।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- महाराष्ट्र और गुजरात का गठन 1 मई 1960 को भाषा के आधार पर किया गया था।
- संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के दौरान 106 लोगों की मौत हुई थी।
- शिवसेना की स्थापना 1966 में बाल ठाकरे ने मराठी मानुष की भावना के आधार पर की थी।
- महाराष्ट्र के बेलगाम, निपाणी, करवार और गुलबर्गा जैसे क्षेत्र कर्नाटक के साथ विवादित हैं।
मराठी अस्मिता का पुनर्जागरण
मराठी अस्मिता की राजनीति महाराष्ट्र में नई नहीं है। 1950 के दशक में संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन ने भाषा और क्षेत्रीय पहचान को केंद्र में रखते हुए आंदोलन किया था। बाल ठाकरे ने शिवसेना की नींव इसी विचार पर रखी थी कि मराठी युवाओं को रोजगार से वंचित किया जा रहा है, और उन्होंने पहले दक्षिण भारतीयों और बाद में उत्तर भारतीयों के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाया।
हालाँकि 2000 के दशक में उद्धव ठाकरे ने गुजराती समुदाय को जोड़ने का प्रयास किया था, परंतु वर्तमान में गुजरात-महाराष्ट्र की प्रतिद्वंद्विता एक बार फिर उभर रही है, विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की गुजरात की पृष्ठभूमि के संदर्भ में।
बीजेपी का उदय और ठाकरे परिवार की राजनीति
2014 के बाद बीजेपी ने महाराष्ट्र में बड़ी राजनीतिक पकड़ बनाई है, जिससे शिवसेना और मनसे जैसे दलों के लिए जगह संकुचित होती गई है। उद्धव और राज ठाकरे दोनों ही लंबे समय से अलग-अलग राह पर थे। राज ने 2006 में मनसे की स्थापना की थी, लेकिन उसे सीमित राजनीतिक सफलता ही मिली। वहीं, शिवसेना अब दो गुटों में बंटी हुई है — एक उद्धव का और दूसरा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का, जो बीजेपी के साथ गठबंधन में है।
अब ठाकरे बंधुओं की एकजुटता आगामी बृहन्मुंबई महानगरपालिका (BMC) चुनावों के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकती है। एशिया की सबसे बड़ी नगर निगम बीएमसी का नियंत्रण हमेशा से शिवसेना के लिए शक्ति का केंद्र रहा है।
निष्कर्ष
तीन-भाषा नीति के बहाने महाराष्ट्र में भाषाई अस्मिता और क्षेत्रीय पहचान की राजनीति एक बार फिर सतह पर आ गई है। ठाकरे बंधुओं की यह नई एकता न केवल चुनावी समीकरणों को बदल सकती है, बल्कि यह संकेत भी देती है कि ‘मराठी मानुष’ की भावना राज्य की राजनीति में अब भी उतनी ही प्रभावशाली है जितनी छह दशक पहले थी। आने वाले चुनावी मौसम में यह मुद्दा महाराष्ट्र की राजनीतिक दिशा को गहराई से प्रभावित कर सकता है।