COP 30: जलवायु संकट की घड़ी और भारत की निर्णायक भूमिका

इस वर्ष नवंबर में ब्राजील के अमेज़न क्षेत्र के बेलेम शहर में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के 30वें कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज़ (COP 30) का आयोजन होगा। यह बैठक उस समय हो रही है जब जलवायु परिवर्तन से जुड़े जोखिम पहले से कहीं अधिक गंभीर हो चुके हैं, और विश्व की अधिकांश सरकारें अपनी प्रतिबद्धताओं को निभाने में विफल होती दिख रही हैं।
जलवायु कार्रवाई में असमानता और बदलते समीकरण
UNFCCC के मूल सिद्धांत — “साझी लेकिन विभेदित जिम्मेदारियां” (Common But Differentiated Responsibilities) — ने विकसित देशों को प्रमुख जिम्मेदार माना था। लेकिन पिछले वर्षों में ये देश इस सिद्धांत से पीछे हट गए हैं और अब सभी देशों से स्वैच्छिक राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं (Voluntary National Commitments) की अपेक्षा की जा रही है।
2015 के पेरिस समझौते में यह परिपाटी स्थापित हो गई, जिसमें तापमान वृद्धि को 2°C से नीचे और आदर्शतः 1.5°C तक सीमित रखने का लक्ष्य तय हुआ। परंतु UNEP की “Emissions Gap Report 2024” के अनुसार, वर्तमान नीतियों से तापमान में 2.6°C से 2.8°C तक की वृद्धि हो सकती है, और यदि कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं हुआ, तो यह 3.1°C तक पहुँच सकती है।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- वैश्विक कार्बन उत्सर्जन के 74% के लिए छह देश ज़िम्मेदार हैं: अमेरिका, यूरोपीय संघ (सहित UK), चीन, रूस, जापान और भारत।
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2023 में प्रति व्यक्ति CO₂ उत्सर्जन:
- अमेरिका: 14.3 टन
- रूस: 12.5 टन
- जापान: 7.9 टन
- EU: 5.4 टन
- चीन: 8.4 टन
- भारत: केवल 2.1 टन
- एशियाई विकास बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, यदि उच्च स्तर के उत्सर्जन पर रोक नहीं लगी, तो भारत की GDP 2070 तक 24.7% तक घट सकती है।
- अमेरिका ने ट्रंप शासन में पेरिस समझौते से अलग होकर अपने 2030 उत्सर्जन कटौती लक्ष्य को 40% से घटाकर मात्र 3% कर दिया है।
भारत, ब्राज़ील और विकासशील देशों की निर्णायक भूमिका
आज भारत और ब्राज़ील जैसे निम्न प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वाले बड़े विकासशील देश, जलवायु नेतृत्व में अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं। भारत की विकास योजनाएँ अब जीवाश्म ईंधनों पर कम निर्भर होती जा रही हैं — सौर ऊर्जा, हरित हाइड्रोजन और डिजिटल समाधान इस दिशा में अहम हैं।
भारत को COP 30 में निम्नलिखित बिंदुओं पर ज़ोर देना चाहिए:
- “साझी लेकिन विभेदित जिम्मेदारियाँ” सिद्धांत की पुनर्स्थापना, ताकि ऐतिहासिक उत्सर्जन के लिए विकसित देश जवाबदेह बनें।
- विकसित देशों पर दबाव, ताकि वे अपनी प्रतिबद्धताओं को समयबद्ध और विश्वसनीय ढंग से लागू करें।
- विकासशील देशों को जलवायु वित्त और तकनीक में बेहतर समर्थन प्रदान करने की मांग।
- “क्लाइमेट जस्टिस” को वैश्विक चर्चा में शामिल करना — यानी जो देश सबसे कम ज़िम्मेदार हैं, उन्हें सबसे अधिक नुकसान क्यों झेलना पड़े?
निष्कर्ष: अब या कभी नहीं
जलवायु परिवर्तन अब भविष्य की चिंता नहीं, बल्कि वर्तमान की आपदा बन चुका है — गर्मी की लहरें, जंगल की आग, बाढ़, सूखा और असामान्य मौसम के पैटर्न इसके संकेत हैं। COP 30 को महज एक औपचारिक आयोजन न बनाकर एक निर्णायक मोड़ बनाया जाना चाहिए।
भारत को अपने निम्न उत्सर्जन और नीति प्रतिबद्धता को हथियार बनाकर जलवायु न्याय की आवाज़ बुलंद करनी चाहिए। इस बार यदि विकसित देशों की जवाबदेही तय नहीं की गई, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए समय निकलता जा रहा है।
COP 30 केवल एक सम्मेलन नहीं — यह एक चेतावनी है, एक अवसर है, और भारत के लिए एक नैतिक नेतृत्व की कसौटी।