हिरासत में मौत पर उच्च न्यायालय की टिप्पणी: “सबक सिखाना” न्याय नहीं, बल्कि संविधान का अपमान है

छत्तीसगढ़ में एक दलित व्यक्ति की हिरासत में हुई मौत पर हाल ही में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय का निर्णय न केवल कानूनी दृष्टिकोण से बल्कि नैतिक और संवैधानिक मूल्यों के स्तर पर भी गंभीर चिंता का विषय है। न्यायालय ने कहा कि आरोपी पुलिसकर्मी पीड़ित को “सबक सिखाना” चाहते थे — एक ऐसी भाषा जो भारतीय संविधान की आत्मा और कानून के शासन की अवधारणा के विपरीत है।

मामले की गंभीरता

  • एक दलित व्यक्ति को सार्वजनिक दुर्व्यवहार के आरोप में गिरफ्तार किया गया।
  • गिरफ्तारी के कुछ घंटों बाद ही उसकी मौत हो गई, जबकि गिरफ्तारी के समय मेडिकल जांच में कोई चोट नहीं पाई गई थी।
  • पोस्टमार्टम में 26 चोटों की पुष्टि हुई।
  • ट्रायल कोर्ट ने पुलिसकर्मियों को हत्या (IPC 302) का दोषी पाया, लेकिन हाईकोर्ट ने इसे घटाकर गैर इरादतन हत्या (IPC 304) कर दिया, यह कहकर कि हत्या का इरादा नहीं था, लेकिन मृत्यु की संभावना की जानकारी थी।

“सबक सिखाना” — खतरनाक न्यायिक सोच

  • “सबक सिखाना” भारतीय संविधान में कहीं नहीं लिखा गया, न ही यह न्याय का कोई मान्य सिद्धांत है।
  • यह भाषा विजिलांटि न्याय (vigilante justice) की सोच से प्रेरित है, जिसमें कानून प्रक्रिया और अधिकारों के माध्यम से नहीं, बल्कि डर और हिंसा के ज़रिए लागू होता है।
  • जब कोई न्यायालय ऐसी भाषा का उपयोग करता है, तो वह संवैधानिक शासन की बजाय दंडात्मक संस्कृति को बढ़ावा देता है।

जातिगत पहचान की अनदेखी

  • पीड़ित एक अनुसूचित जाति (SC) से था, और आरोपी पुलिसकर्मी उच्च जातियों से संबंधित थे।
  • ट्रायल कोर्ट ने SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत आरोपों से मुक्त कर दिया, और उच्च न्यायालय ने भी इसमें हस्तक्षेप नहीं किया।
  • न्यायालयों की यह प्रवृत्ति कि जब तक सीधा जातिसूचक अपमान न हो, तब तक SC/ST एक्ट लागू नहीं होगा, संरचनात्मक जातीय हिंसा की हकीकत को नकारना है।

न्यायपालिका और संरचनात्मक विफलताएं

  • सुप्रीम कोर्ट के D.K. Basu, Ashok K. Johri और Munshi Singh Gautam जैसे मामलों में हिरासत में पारदर्शिता और प्रक्रिया संबंधी सुरक्षा को अनिवार्य किया गया है।
  • फिर भी, हिरासत में मौत के मामलों की संख्या चिंताजनक बनी हुई है, खासकर दलितों, आदिवासियों और गरीबों के बीच।
  • जांच अक्सर उन्हीं संस्थाओं द्वारा होती है जो स्वयं अपराध में संलिप्त होती हैं।

आगे का रास्ता

  1. न्यायिक भाषा में सुधार: “सबक सिखाना” जैसी सोच को न्यायिक स्वीकृति देना राज्य हिंसा को नैतिक वैधता देना है।
  2. SC/ST अधिनियम का प्रभावी प्रयोग: संरचनात्मक जातीय शक्ति का उपयोग भी इस अधिनियम के दायरे में आना चाहिए, न कि केवल प्रत्यक्ष गाली-गलौज।
  3. स्वतंत्र जांच तंत्र की स्थापना: पुलिस हिरासत में हुई मौतों की जांच स्वतंत्र एजेंसियों द्वारा होनी चाहिए।
  4. संवैधानिक प्रशिक्षण: न्यायपालिका और पुलिस दोनों को संवैधानिक मूल्यों — गरिमा, समानता और कानून की सर्वोच्चता — पर आधारित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • IPC 302: हत्या (life imprisonment या मृत्युदंड)।
  • IPC 304: गैर इरादतन हत्या (10 साल तक की सजा)।
  • SC/ST Act, 1989: जातीय हिंसा के पीड़ितों को संरक्षण प्रदान करता है।
  • D.K. Basu बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997): हिरासत में पारदर्शिता और मानवाधिकार की रक्षा के लिए ऐतिहासिक फैसला।

संविधान का आधार न्याय, स्वतंत्रता, समानता और गरिमा है। यदि हमारी न्याय प्रणाली “सबक सिखाने” जैसे शब्दों को सहिष्णुता प्रदान करती है, तो यह संविधान की नींव को ही हिला देती है। हिरासत में हिंसा अनुशासन नहीं, अपराध है — और इसका हर रूप अस्वीकार्य है।

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