राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी: अनुच्छेद 200 बनाम अनुच्छेद 356

हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने एक महत्त्वपूर्ण सवाल उठाया: अगर अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है, तो अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर निर्णय में देरी की समीक्षा क्यों नहीं? यह बहस तमिलनाडु सरकार की याचिका से जुड़ी है जिसमें राज्यपाल द्वारा 2020 से लंबित विधेयकों पर कार्रवाई न करने पर सवाल उठाया गया है।

अनुच्छेद 200 बनाम अनुच्छेद 356: संवैधानिक विवेचना

अनुच्छेद 200 राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय लेने का अधिकार देता है — वे या तो स्वीकृति दे सकते हैं, अस्वीकृति कर सकते हैं, पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं या राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख सकते हैं। परंतु इसमें “जितनी शीघ्रता से संभव हो” का उल्लेख है, जो राज्यपाल की भूमिका में तात्कालिकता का संकेत करता है।
वहीं अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है यदि राज्य सरकार संविधान के अनुरूप कार्य नहीं कर रही हो। यह प्रावधान केंद्र को राज्य प्रशासन अपने अधीन लेने की शक्ति देता है, किंतु सुप्रीम कोर्ट ने एस.आर. बोम्मई मामले (1994) में स्पष्ट किया था कि अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन रहेगा ताकि इसका दुरुपयोग न हो।

सुप्रीम कोर्ट की हालिया व्याख्या

तमिलनाडु बनाम राज्यपाल प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल को “पॉकेट वीटो” (अनिश्चितकाल तक विधेयक रोकना) या “एब्सोल्यूट वीटो” (पूर्णतः अस्वीकृति) की शक्ति नहीं है। न्यायालय ने अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेष अधिकारों का उपयोग करते हुए राज्यपाल की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए समयसीमा निर्धारित की है।
महत्वपूर्ण निर्णयों में न्यायालय ने कहा:

  • राज्यपाल विधेयकों पर निर्णय लेने में अनावश्यक विलंब नहीं कर सकते।
  • एक बार पुन: पारित विधेयक पर राज्यपाल उसे राष्ट्रपति को नहीं भेज सकते और उन्हें अनिवार्यतः स्वीकृति देनी होगी।
  • राज्यपाल को राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह से कार्य करना होगा, जब तक कि मामला उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों से जुड़ा न हो।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • अनुच्छेद 200 राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय लेने की चार विकल्प देता है: स्वीकृति, अस्वीकृति, पुनर्विचार के लिए लौटाना, या राष्ट्रपति के पास भेजना।
  • एस.आर. बोम्मई केस (1994) ने अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन की न्यायिक समीक्षा की अनुमति दी थी।
  • अनुच्छेद 356 की शक्ति पहली बार 1951 में पंजाब में लागू हुई थी।
  • 44वें संविधान संशोधन (1978) ने राष्ट्रपति शासन को एक वर्ष से अधिक बढ़ाने पर पाबंदी लगाई, जब तक राष्ट्रीय आपातकाल या चुनाव आयोग की अनुमति न हो।

संवैधानिक संतुलन की आवश्यकता

सुप्रीम कोर्ट का यह रुख केंद्र और राज्य के बीच शक्ति संतुलन को बनाए रखने की दिशा में एक अहम कदम है। यदि अनुच्छेद 356 की समीक्षा की जा सकती है, तो अनुच्छेद 200 पर चुप्पी न्यायिक प्रणाली को सीमित करती है और राज्यपाल को निरंकुश बना सकती है। इसके अतिरिक्त, यह तर्क कि राष्ट्रपति या राज्यपाल के कार्यों पर केवल संसद निगरानी रखे, न्यायिक स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के लिए चुनौती बन सकता है।
न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति भी न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं, खासकर जब उनकी निष्क्रियता लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करती है।
राज्यपाल की भूमिका का सम्मान आवश्यक है, किंतु वह जवाबदेही से मुक्त नहीं हो सकते। यह निर्णय केंद्र-राज्य संबंधों में संतुलन बनाने, विधायिका की गरिमा बनाए रखने और संघीय ढांचे की रक्षा के लिए एक निर्णायक क्षण बन सकता है।

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