भारत-चीन सीमा विवाद: बातचीत, समझौते और अधूरी परिभाषाएं

भारत और चीन के बीच सीमा संबंधों का इतिहास जटिल, अस्थिर और राजनीतिक उतार-चढ़ावों से भरा रहा है। राजीव गांधी की 1988 की बीजिंग यात्रा के बाद दोनों देशों के संबंधों में थोड़ी स्थिरता आई, लेकिन वह भी अल्पकालिक रही। इसके बाद 1990 के दशक में सीमाई शांति स्थापित करने के उद्देश्य से जो प्रयास किए गए, वे समय के साथ अधूरे रहे, जिससे 2020 जैसे टकराव की स्थितियां उत्पन्न हुईं। इस लेख में इन प्रयासों, समझौतों और उनकी सीमाओं की समीक्षा की गई है।
1993: सीमा शांति और मैत्री समझौता (BPTA)
राजीव गांधी की यात्रा के बाद 1988 से 1993 के बीच संयुक्त कार्य समूह (JWG) की छह बैठकों में सीमा विवाद पर संवाद आगे बढ़ा। 1993 में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव की चीन यात्रा के दौरान Border Peace and Tranquillity Agreement (BPTA) पर हस्ताक्षर हुए।
- यह समझौता इस बात पर आधारित था कि सीमा विवाद को शांतिपूर्ण बातचीत से सुलझाया जाएगा और कोई भी पक्ष बल प्रयोग नहीं करेगा।
- LAC (Line of Actual Control) को पहली बार आधिकारिक रूप से दस्तावेज़ में स्वीकार किया गया और सहमति बनी कि कोई पक्ष इसे पार नहीं करेगा।
- यदि अनजाने में कोई पक्ष LAC पार करता है तो दूसरे की चेतावनी पर वापसी करनी होगी।
- दोनों पक्ष सीमावर्ती क्षेत्रों में सेना की संख्या कम करेंगे, जो भौगोलिक असंतुलन को ध्यान में रखते हुए तय की जाएगी।
1996: सैन्य विश्वास बहाली उपायों (CBMs) पर समझौता
1996 में चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन की भारत यात्रा के दौरान इस समझौते का विस्तार हुआ:
- सीमा के पास बड़ी सैन्य अभ्यासों पर रोक लगाई गई और यदि आवश्यक हो, तो उसका दिशा उलटी तरफ होनी चाहिए।
- 120 मिमी से अधिक के हथियार, टैंक, मिसाइलों आदि की सीमावर्ती तैनाती पर नियंत्रण तय किया गया।
- सबसे महत्वपूर्ण — LAC के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए नक्शों का आदान-प्रदान किया जाना था, ताकि दोनों पक्ष एक ही LAC को मानें।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- BPTA (1993): पहला औपचारिक समझौता जिसमें भारत और चीन ने LAC को आधार मानते हुए शांति स्थापना की सहमति दी।
- JWG (Joint Working Group): सीमा वार्ता के लिए 1988 में स्थापित संयुक्त कार्य समूह, जिसने 2000 तक सीमित सफलता पाई।
- CBM (Confidence Building Measures): 1996 में हस्ताक्षरित समझौता जिससे सीमा पर सैन्य गतिविधियों को सीमित करने की कोशिश की गई।
- 2002 में नक्शों का आदान-प्रदान हुआ, लेकिन 20 मिनट में ही दोनों पक्षों ने उन्हें लौटा दिया, क्योंकि ये “मैक्सिमलिस्ट” रुख दर्शाते थे।
अधूरी परिभाषा और उसके परिणाम
LAC की परिभाषा पर कोई साझा सहमति नहीं बन पाई। 2000 में मध्य क्षेत्र के नक्शे का आदान-प्रदान हुआ, लेकिन पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्रों में प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी। 2002 में पश्चिमी क्षेत्र के नक्शे भी अस्वीकार कर दिए गए।
- जिन इलाकों में मतभेद थे — जैसे देपसांग, पांगोंग त्सो, चुमार, डेमचोक आदि — वहीं 2020 की टकराव की मुख्य जमीन बने।
- नक्शों पर सहमति न बनना, और किसी स्पष्ट LAC की अनुपस्थिति ने इन टकरावों को अपरिहार्य बना दिया।
निष्कर्ष: संवाद से समाधान की ओर
1993 और 1996 के समझौते भारत-चीन संबंधों में सकारात्मक मोड़ ला सकते थे, बशर्ते उनकी पूर्ण और निष्पक्ष क्रियान्वयन होती। लेकिन समय के साथ यह साफ हो गया कि जब तक LAC को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया जाएगा और दोनों पक्षों में पारदर्शिता नहीं होगी, सीमा टकराव भविष्य में भी होते रहेंगे।
आज जरूरत है कि दोनों देश पुराने समझौतों की मूल भावना को पुनर्जीवित करें — यानी संवाद, संयम और समझ। सीमाई शांति केवल दस्तावेज़ों से नहीं, विश्वास, पारदर्शिता और परिभाषा की स्पष्टता से आती है।