भारत-चीन संबंधों की पुनर्संरचना: सांस्कृतिक संवाद और रणनीतिक यथार्थ की आवश्यकता

भारत और चीन के बीच संबंधों को मजबूती देने के लिए केवल राजनयिक वार्ताओं या व्यापारिक समझौतों पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं है। इतिहास, सांस्कृतिक दृष्टिकोण और रणनीतिक असमानताएं इस रिश्ते को जटिल बनाती हैं। हाल ही में भारत की ओर से सीमा विवादों और व्यापार को लेकर सहयोग की कई पहलें हुई हैं, परंतु वास्तविक प्रगति के लिए संबंधों को अधिक व्यापक और स्थायी दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है।

ऐतिहासिक अविश्वास की जड़ें और पश्चिमी प्रभाव

भारत और चीन के बीच वैचारिक दूरी कोई नई बात नहीं है। यह दरार गुप्त काल (6वीं शताब्दी) से चली आ रही है, जब दोनों सभ्यताओं के दार्शनिक दृष्टिकोणों में अंतर स्पष्ट हुआ। आधुनिक समय में भारत का चीनी छवि को लेकर दृष्टिकोण काफी हद तक पश्चिमी मीडिया और विश्लेषणों से प्रभावित रहा है, जिसने चीन को अक्सर अविश्वासी और धोखेबाज के रूप में चित्रित किया है। इसके परिणामस्वरूप भारत की सैन्य और कूटनीतिक संस्थाओं ने भी चीनी रणनीतियों को लेकर सतर्क और आशंकित रुख अपनाया है।

चीनी कूटनीति की विशेषताएं: प्रक्रिया और प्रतीक्षा का महत्व

चीन की रणनीति केवल साम्यवादी विचारधारा से नहीं चलती, बल्कि उसमें कन्फ्यूशियस, ताओ और बौद्ध परंपराओं की गहरी छाप है। “ताओ गुआंग यांग हुई” — यानी “अपनी क्षमता छुपाकर सही समय की प्रतीक्षा करना” — चीनी कूटनीति का मूल सिद्धांत है। वे संबंधों में दीर्घकालिकता को तत्काल लाभ से अधिक महत्व देते हैं। इसलिए समझौतों की बजाय विश्वास पर आधारित ‘गुआनक्सी’ (व्यक्तिगत संबंधों की शक्ति) को प्राथमिकता दी जाती है।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • CAQM की तरह भारत और चीन के बीच भी एक WMCC (Working Mechanism for Consultation and Coordination) नामक ढांचा है जो सीमा विवादों पर बातचीत करता है।
  • 2018 में वुहान और 2019 में चेन्नई शिखर सम्मेलन के बाद द्विपक्षीय संवाद की रफ्तार धीमी पड़ी।
  • “गुआनक्सी” (Guanxi) चीनी संस्कृति में विश्वास-आधारित संबंधों का मूल सिद्धांत है।
  • चीन में आज भी भारत की सर्वास्तिवादिन अभिधम्म बौद्ध परंपरा संरक्षित है।

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