भारत के उपराष्ट्रपति पद का विकास: एक संवैधानिक स्तंभ की गौरवगाथा

भारत के उपराष्ट्रपति का पद संविधान के अनुच्छेद 63 के अंतर्गत स्थापित किया गया था और यह देश का दूसरा सर्वोच्च संवैधानिक पद है। यह मात्र एक प्रतीकात्मक भूमिका नहीं है, बल्कि उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं और राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उनके कार्यभार का निर्वहन भी करते हैं। 1952 में इस पद की स्थापना के बाद से यह भारत की राजनीतिक यात्रा का एक प्रमुख हिस्सा रहा है, जिसमें शिक्षा, कानून, राजनीति और प्रशासन से जुड़े विशिष्ट व्यक्तित्वों ने इसकी गरिमा को बढ़ाया है।
आदर्शवाद से व्यावहारिक राजनीति तक: उपराष्ट्रपति पद की यात्रा
भारत के पहले उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1952–1962) एक विख्यात दार्शनिक और शिक्षाविद थे। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और सोवियत संघ में भारत के राजदूत रह चुके राधाकृष्णन ने इस पद को बौद्धिक गंभीरता और गरिमा प्रदान की। उनके बाद डॉ. ज़ाकिर हुसैन (1962–1967) ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया, जो एक प्रसिद्ध शिक्षाविद और स्वतंत्रता सेनानी थे। वह पहले मुस्लिम राष्ट्रपति भी बने।
वी. वी. गिरि (1967–1969) का कार्यकाल अपेक्षाकृत छोटा रहा, परंतु उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जीतकर कांग्रेस में बड़ी राजनीतिक हलचल पैदा की। यह घटना इस पद को राजनीतिक रूप से अत्यधिक प्रासंगिक बना गई।
स्थिरता और संविधान की मर्यादा का दौर
1969 से 1987 के बीच उपराष्ट्रपति पद पर ऐसे व्यक्ति आसीन हुए जिन्होंने न्याय, प्रशासन और संवैधानिक स्थिरता को प्राथमिकता दी। गोपाल स्वरूप पाठक, बी. डी. जत्ती, एम. हिदायतुल्लाह और रामास्वामी वेंकटरमण जैसे नेताओं ने इस पद को गंभीरता और गरिमा से निभाया। विशेषकर आपातकाल और उसके बाद के वर्षों में इन उपराष्ट्रपतियों की भूमिका संतुलन बनाए रखने में अहम रही।
संक्रमण और सामाजिक समावेश का युग
1987 से 2002 के कालखंड में उपराष्ट्रपति पद एक बार फिर राष्ट्रपति पद की सीढ़ी बन गया। शंकर दयाल शर्मा, के. आर. नारायणन जैसे उपराष्ट्रपति बाद में राष्ट्रपति बने। नारायणन पहले दलित उपराष्ट्रपति बने और सामाजिक समावेशन का प्रतीक बने। कृषण कांत इस पद पर रहते हुए मृत्यु को प्राप्त होने वाले पहले उपराष्ट्रपति थे, जिनका कार्यकाल संसद पर हुए आतंकी हमले जैसी चुनौतीपूर्ण घटनाओं से जुड़ा रहा।
आधुनिक काल में राजनीतिक संतुलन की भूमिका
2002 के बाद उपराष्ट्रपति पद पर ऐसे नेता आए जिन्होंने सक्रिय राजनीति में लंबा समय बिताया। भैरों सिंह शेखावत ने इस पद पर रहते हुए गठबंधन युग की जटिलताओं को सफलतापूर्वक संभाला। हामिद अंसारी (2007–2017) ने अपने दो कार्यकालों में राज्यसभा की कार्यवाही को मर्यादित बनाए रखने में भूमिका निभाई। एम. वेंकैया नायडू ने ग्रामीण विकास और सदन की उत्पादकता पर विशेष बल दिया।
जगदीप धनखड़ (2022–2025) ने सख्त रुख अपनाकर सदन में अनुशासन बनाए रखने की कोशिश की, हालांकि स्वास्थ्य कारणों से उन्हें कार्यकाल से पहले इस्तीफा देना पड़ा। उनके बाद चुने गए सी. पी. राधाकृष्णन (2025–वर्तमान) इस पद पर आसीन हैं। वे तमिलनाडु से आने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और इससे पहले झारखंड और महाराष्ट्र के राज्यपाल रह चुके हैं।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- भारत का उपराष्ट्रपति पद संविधान के अनुच्छेद 63 के अंतर्गत स्थापित है।
- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति पद पर दो बार निर्विरोध चुने गए थे।
- के. आर. नारायणन पहले दलित और ज़ाकिर हुसैन पहले मुस्लिम राष्ट्रपति बने।
- कृषण कांत एकमात्र उपराष्ट्रपति हैं जिनकी मृत्यु कार्यकाल के दौरान हुई।
भारत का उपराष्ट्रपति पद केवल संवैधानिक व्यवस्था का हिस्सा नहीं, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र का एक जीवंत प्रतिबिंब है। हर उपराष्ट्रपति ने अपने युग की चुनौतियों और मूल्यों के अनुरूप इस पद को नई ऊंचाइयाँ दीं। यह पद न केवल संसद की गरिमा बनाए रखने का माध्यम है, बल्कि संकट के समय राष्ट्र की स्थिरता का भी प्रमुख स्तंभ रहा है। भविष्य में भी, यह पद भारत की लोकतांत्रिक यात्रा में अपनी निर्णायक भूमिका निभाता रहेगा।