भारत की जीडीपी में घरेलू खपत आंकड़ों का विरोधाभास: PFCE बनाम HCES

भारत की अर्थव्यवस्था में घरेलू खपत का योगदान लगभग 60 प्रतिशत है, जो इसे सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का सबसे बड़ा घटक बनाता है। ऐसे में यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि इसे मापने वाले आंकड़े विश्वसनीय और सुसंगत हों। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से, भारत सरकार के दो प्रमुख स्रोत — National Accounts Statistics के अंतर्गत Private Final Consumption Expenditure (PFCE) और National Sample Survey Office द्वारा संचालित Household Consumption Expenditure Survey (HCES) — इस विषय में दो बिल्कुल भिन्न तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। 1972-73 में जहां इनके बीच का अंतर मात्र 5% था, वह 2022-23 तक बढ़कर लगभग 45% हो गया है। इस बढ़ते अंतर ने नीतिगत निर्णयों और सामाजिक योजनाओं की सटीकता पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है।
PFCE और HCES में मूलभूत अंतर
PFCE एक समष्टिगत (macroeconomic) दृष्टिकोण से तैयार किया गया आंकड़ा है, जो उत्पाद, व्यापार, मूल्य और प्रशासनिक स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर तैयार किया जाता है। इसमें घरों को दी गई मुफ्त या रियायती सेवाएं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, मुफ्त भोजन आदि को भी आर्थिक मूल्य के साथ जोड़ा जाता है।
वहीं दूसरी ओर, HCES एक सूक्ष्म (microeconomic) स्तर पर किए गए सर्वेक्षणों के माध्यम से तैयार किया जाता है, जिसमें परिवारों द्वारा स्वयं बताए गए वास्तविक खर्च को दर्ज किया जाता है। इसमें केवल वही सेवाएं गिनी जाती हैं जिनके लिए परिवारों ने भुगतान किया हो।
इस कारणवश, PFCE में जहां सेवा के वास्तविक मूल्य को गिना जाता है, वहीं HCES में केवल भुगतान की गई राशि को। यही कारण है कि दोनों आंकड़ों में लगातार अंतर बना हुआ है।
अंतर बढ़ने के कारण
- पद्धतिगत भिन्नता: PFCE में उपभोग की गई वस्तुओं और सेवाओं का पूरा मूल्य शामिल होता है, जबकि HCES केवल व्यय को गिनता है।
- मूल्य निर्धारण में अंतर: PFCE में बाजार मूल्य का उपयोग होता है, जबकि HCES में घरों द्वारा बताए गए मूल्य से औसत निकाला जाता है।
- समय अंतराल: HCES कृषि वर्ष के अनुसार होता है, जबकि PFCE वित्तीय वर्ष के अनुसार, जिससे 6 महीने का अंतर आ जाता है।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- भारत में घरेलू खपत GDP का लगभग 60% हिस्सा है।
- HCES डेटा भारत में गरीबी, असमानता और खाद्य सुरक्षा जैसे नीतिगत क्षेत्रों की नींव है।
- 2022-23 में ग्रामीण क्षेत्रों में मासिक प्रति व्यक्ति खर्च ₹3,773 और शहरी क्षेत्रों में ₹6,459 रहा।
- PFCE में गैर-लाभकारी संस्थाओं द्वारा दी गई सेवाएं (NPISHs) भी शामिल होती हैं।
नीतिगत असर और समाधान
HCES के आंकड़ों में उच्च आय वर्ग के लोगों की भागीदारी सीमित होने के कारण, वास्तविक उपभोग कम आंका जाता है। इससे गरीबी दर अधिक दिख सकती है और योजनाएं गलत दिशा में जा सकती हैं। वहीं PFCE में यदि पुराने अनुपात या मान्यताओं पर आधारित गणना होती है, तो उपभोग का अधिक आकलन हो सकता है।
इस समस्या से निपटने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं:
- HCES का पुनः डिज़ाइन: उच्च आय वर्ग की भागीदारी बढ़ाने के लिए सैंपलिंग फ्रेम की समीक्षा।
- आयकर और डिजिटल भुगतान डेटा का उपयोग: उपभोग के वैकल्पिक संकेतक के रूप में।
- स्कैनर डेटा: खुदरा और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से खरीदी गई वस्तुओं की सटीक जानकारी।
- PFCE में प्रयुक्त अनुपातों की अद्यतनता: पुराने इनपुट-आउटपुट तालिकाओं को हटाकर ताज़ा आँकड़े शामिल करना।
- NPISHs की सीधी कवरेज: इन संस्थाओं से आय और व्यय का डेटा नियमित रूप से लेना।
- दोनों आंकड़ों के मेल के लिए संयोजन तंत्र: PFCE की व्यापकता और HCES की सूक्ष्मता को जोड़ते हुए सटीक अनुमान लगाना।
इन प्रयासों से उपभोग के आंकड़ों की सटीकता बढ़ेगी, जिससे नीतिगत निर्णय अधिक प्रभावी और तर्कसंगत हो सकेंगे।
भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में उपभोग के पैटर्न को मापना सरल कार्य नहीं है, लेकिन जब दो आधिकारिक स्रोतों में इतना बड़ा अंतर हो, तो उसकी अनदेखी करना नीति और योजना दोनों के लिए जोखिमपूर्ण हो सकता है। आवश्यकता है, आंकड़ों की विश्वसनीयता को बढ़ाने के लिए समन्वित और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की।