बिहार के प्रवासी मतदाताओं की चुपचाप हो रही ‘वोटर-पर्ज’: लोकतंत्र का संकट

लोकतंत्र में हर वोट की कीमत होती है, लेकिन बिहार के लाखों प्रवासी नागरिकों के लिए यह अधिकार मौन रूप से छिनता जा रहा है। हाल ही में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) अभियान में, लगभग 35 लाख प्रवासी मतदाताओं के नाम केवल इसलिए हटा दिए गए क्योंकि वे घर पर नहीं थे — उन्हें “स्थायी पलायनकर्ता” मान लिया गया।
प्रवासन: अर्थव्यवस्था नहीं, अस्तित्व की रणनीति
बिहार की ग्रामीण अर्थव्यवस्था दशकों से आंतरिक प्रवासन पर निर्भर रही है। गरीब और मेहनतकश लोग अक्सर मौसमी या दीर्घकालिक रूप से पलायन करते हैं। कई परिवार या तो साथ पलायन करते हैं या महिलाएं ससुराल में रह जाती हैं। लेकिन यह “बंटा हुआ प्रवासी जीवन”, अब निर्वाचन आयोग द्वारा त्याग समझा जा रहा है।
सरकार अब यह तय कर रही है कि जो मतदाता घर पर नहीं मिलते, उनके वोटर अधिकार स्वतः समाप्त हो जाते हैं — न तो वे कार्यस्थल पर वोट दे सकते हैं, और अब न ही घर पर।
भारत का ‘स्थिर नागरिक’ मॉडल और उसकी सीमाएं
भारत की निर्वाचन व्यवस्था अब भी स्थायी निवासी की अवधारणा पर आधारित है, जबकि करोड़ों भारतीय “चलायमान नागरिक” हैं। प्रवासी मज़दूरों के पास:
- कोई स्थायी पता नहीं होता
- किराए के मकानों या अस्थायी आवासों में रहते हैं
- स्थानीय पहचानपत्र प्राप्त करना कठिन होता है
इससे उनका गंतव्य राज्यों में पंजीकरण रुक जाता है, और अब मूल राज्य में नाम कटना उन्हें पूरी तरह से राजनीतिक व्यवस्था से बाहर कर देता है।
TISS अध्ययन और प्रवासियों का लोकतांत्रिक बहिष्कार
2015 में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (TISS) द्वारा किए गए अध्ययन ने प्रवासी मतदाताओं के लिए तीन प्रमुख बाधाएं बताईं:
- प्रशासनिक अड़चनें
- डिजिटल अशिक्षा
- सामाजिक भेदभाव
अध्ययन में यह भी स्पष्ट हुआ कि जिन राज्यों में प्रवासन अधिक, वहां वोट प्रतिशत कम होता है। लेकिन बिहार सरकार ने इसे सुधारने के बजाय 35 लाख नामों की कटौती कर लोकतांत्रिक अंतर को और गहरा कर दिया है।
संख्याएं जो चौंकाती हैं
- बिहार से सालाना 70 लाख प्रवासी बाहर जाते हैं, जिनमें से लगभग 27 लाख अक्टूबर-नवंबर में पर्वों और चुनावों के लिए लौटते हैं।
- 53.2% औसत मतदान दर (बिहार) — भारत के मुख्य राज्यों में सबसे कम।
- ‘One Nation One Ration Card’ योजना में भी बिहार के अधिकांश प्रवासी मूल राज्य से ही राशन लेते हैं — गंतव्य राज्यों में सिर्फ 3.3 लाख परिवार पोर्टेबिलिटी का उपयोग करते हैं।
ये आंकड़े बताते हैं कि प्रवासी लोग अपनी राजनीतिक पहचान से बंधे रहना चाहते हैं, लेकिन सिस्टम उन्हें बहिष्कृत कर रहा है।
भारत-नेपाल सीमा और दस्तावेजी संकट
भारत-नेपाल की 1,751 किमी खुली सीमा के दोनों ओर विवाह और कामकाज की परंपरा रही है — जिसे “रोटी-बेटी का रिश्ता” कहा जाता है। लेकिन अब नए नागरिकता नियमों और दस्तावेजी प्रक्रियाओं के कारण, खासकर महिलाओं को कानूनी और मतदाता अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। यह समस्या अब क्षेत्रीय, वर्ग आधारित ही नहीं, बल्कि लिंग और नस्लीय रंगत भी लेने लगी है।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- SIR (Special Intensive Revision) के तहत मतदाता सूची को घर-घर जाकर सत्यापित किया जाता है।
- ‘Ordinarily Resident’ वही माना जाता है जो कम से कम 6 महीने से एक जगह पर रहता हो।
- ECI (निर्वाचन आयोग) की ‘रिमोट वोटिंग’ पर पहल अभी तक क्रियान्वयन में नहीं आई है।
- One Nation One Ration Card, 2019 में शुरू हुई थी ताकि प्रवासी किसी भी राज्य में राशन ले सकें।
समाधान: एक मोबाइल और पोर्टेबल पहचान प्रणाली
भारत को तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है:
- प्रवासी मतदाताओं के नाम बिना पूर्व सूचना हटाना रोकना चाहिए।
- गंतव्य राज्यों के साथ डेटा साझा कर, प्रवासियों का दोबारा पंजीकरण सुनिश्चित किया जाए।
- पंचायतों और नागरिक समाज को प्रवासी जागरूकता और पंजीकरण प्रक्रिया में जोड़ा जाए।
- केरल मॉडल के अनुसार, बिहार और यूपी जैसे प्रवासी राज्यों में नियमित प्रवासन सर्वेक्षण किए जाएं।
- दीर्घकालिक समाधान के रूप में, मोबाइल-आधारित वोटर आईडी और रिमोट वोटिंग तकनीक को विकसित किया जाए।
यदि इन कदमों को नहीं उठाया गया, तो भारत इतिहास में सबसे बड़ा चुपचाप लोकतांत्रिक बहिष्कार दर्ज करेगा — वह भी अपने किसी दुश्मन का नहीं, बल्कि अपने ही गरीब, मेहनती नागरिकों का, जो सिर्फ पेट पालने के लिए घर छोड़ते हैं।
लोकतंत्र तब ही सार्थक है जब हर हाथ को रोटी और हर नागरिक को वोट का हक मिले — चाहे वह जहां भी हो।