पराली जलाने पर सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी: समाधान सज़ा नहीं, संरचना में सुधार

हर वर्ष अक्टूबर-नवंबर में उत्तर भारत के अनेक राज्यों — विशेषकर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश — में वायु प्रदूषण गंभीर रूप ले लेता है। इसका एक प्रमुख कारण है पराली जलाना, यानी खेतों में फसलों की कटाई के बाद बचे अवशेषों को जलाना। अब सुप्रीम कोर्ट ने पराली जलाने वाले किसानों पर कानूनी कार्यवाही की संभावना जताई है, जिससे यह बहस और भी तीव्र हो गई है कि क्या दंडात्मक नीति इस समस्या का समाधान है?

पराली जलाना: एक मजबूरी, न कि केवल आदत

भारत में कृषि की संरचना और आर्थिक दबावों के कारण, विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में, किसान फसल चक्र के बीच का समय बहुत सीमित पाते हैं। खरीफ फसल (धान) की कटाई के बाद रबी फसल (गेहूं) की बुआई तुरंत करनी होती है। इस तात्कालिकता के चलते पराली को जलाना उन्हें सबसे आसान और सस्ता विकल्प लगता है।
इसके साथ ही, अत्यधिक मशीनीकरण, जैसे कि कंबाइन हार्वेस्टर का उपयोग, पराली को खेत में छोड़ देता है, जिसे साफ करने के लिए किसानों के पास न समय होता है, न संसाधन।

वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (CAQM): एक निष्क्रिय संस्था?

2020 में स्थापित वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (CAQM) को पांच राज्यों — पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और राजस्थान — में प्रदूषण की निगरानी और नियंत्रण के उद्देश्य से बनाया गया था। परंतु यह संस्था अपने चार वर्षों के अस्तित्व में स्वतंत्र और सशक्त कार्रवाई करने में असफल रही है।
हालिया उदाहरण है NCR में पुराने वाहनों पर पेट्रोल और डीज़ल बिक्री पर प्रतिबंध। जनता और नेताओं के विरोध के बाद इस आदेश को टाल दिया गया। इसी प्रकार, पराली जलाने पर भी आयोग पारदर्शिता से काम नहीं कर पाया — उदाहरणस्वरूप, पंजाब सरकार द्वारा कथित रूप से गलत आँकड़े पेश करने पर CAQM ने चुप्पी साधे रखी।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • भारत में हर साल लगभग 5-10 करोड़ टन फसल अवशेष जलाए जाते हैं।
  • CAQM की स्थापना 2020 में केंद्र सरकार द्वारा की गई थी।
  • NCR में पुराने पेट्रोल/डीज़ल वाहनों पर प्रतिबंध का आदेश पहले जुलाई से लागू होना था, जिसे टालकर नवंबर कर दिया गया।
  • पराली जलाना मुख्यतः अक्टूबर-नवंबर में होता है, जब मानसून लौट चुका होता है और प्रदूषक कण वातावरण में फंस जाते हैं।

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