“दिग्विजय दिवस” और स्वामी विवेकानंद: राष्ट्रीय एकता और वैश्विक मानवीयता के प्रेरणास्तंभ

“दिग्विजय दिवस” और स्वामी विवेकानंद: राष्ट्रीय एकता और वैश्विक मानवीयता के प्रेरणास्तंभ

भारत जब आज के अस्थिर वैश्विक परिदृश्य में एक प्रभावशाली शक्ति बनने की ओर अग्रसर है, और साथ ही सांप्रदायिकता, सामाजिक-आर्थिक विषमता, तथा जातीय संघर्ष जैसे आंतरिक मुद्दों से जूझ रहा है, ऐसे समय में स्वामी विवेकानंद की शिक्षाएँ एक नैतिक और वैचारिक मार्गदर्शिका के रूप में हमारे सामने आती हैं। हर वर्ष 11 सितंबर को मनाया जाने वाला “दिग्विजय दिवस” — जब स्वामी विवेकानंद ने 1893 में शिकागो के विश्व धर्म महासभा में ऐतिहासिक भाषण दिया — न केवल धार्मिक सहिष्णुता की उद्घोषणा है, बल्कि भारत की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना का विश्व मंच पर पहला प्रभावी संवाद भी है।

विवेकानंद की शिकागो की उद्घोषणा: सहिष्णुता और एकता का संदेश

“अमेरिका के बहनों और भाइयों” जैसे अद्भुत संबोधन से शुरू हुआ उनका भाषण न केवल श्रोताओं का मन जीतने वाला था, बल्कि एक सार्वभौमिक धर्म की अवधारणा प्रस्तुत करने वाला भी था। उन्होंने घोषणा की कि सभी धर्म सत्य हैं और सहिष्णुता तथा सर्वस्वीकार्यता हिंदू धर्म की आत्मा है। उन्होंने भारत को उन गिने-चुने देशों में बताया, जिसने सताए गए यहूदियों और पारसियों को शरण दी और धार्मिक विविधता को आत्मसात किया।

भारत के आध्यात्मिक नवजागरण के अग्रदूत

शिकागो भाषण के बाद विवेकानंद ने तीन वर्षों तक विदेशों में व्याख्यान दिए, जिससे भारत के आध्यात्मिक नवजागरण को गति मिली। उन्होंने “एकता में विविधता” को प्रकृति की योजना बताया और कहा कि भारत ने इसे लंबे समय से पहचाना है। वे आध्यात्मिक राष्ट्रवाद के पहले प्रवर्तकों में से थे, जिन्होंने आत्म-गौरव और राष्ट्र चेतना को जाग्रत किया।

व्यावहारिक वेदांत और सामाजिक न्याय

विवेकानंद का विचार था कि सच्चा धर्म सेवा में है, उपदेश में नहीं। उन्होंने व्यावहारिक वेदांत को अपनाया और सेवा को राष्ट्रधर्म का आधार बनाया। उन्होंने कहा कि भारत के निम्न जातियों, गरीबों और पिछड़े वर्गों के बीच भी भ्रातृत्व की भावना होनी चाहिए। उनका स्पष्ट मानना था कि सभी सामाजिक विभाजन केवल भ्रम हैं — भारत को एकजुट रखने का मार्ग सेवा, नैतिकता और आध्यात्मिक एकता से होकर जाता है।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • दिग्विजय दिवस: 11 सितंबर, स्वामी विवेकानंद का शिकागो भाषण (1893)
  • मुख्य संदेश: धार्मिक सहिष्णुता, एकता, सार्वभौमिक मानवता
  • प्रमुख उद्धरण: “मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूँ जिसने यहूदियों और पारसियों को शरण दी”
  • प्रभाव: भारत का वैश्विक नैतिक नेतृत्व, आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की नींव
  • नेहरू की टिप्पणी: विवेकानंद का राष्ट्रवाद, भारत के अंतरराष्ट्रीयतावाद में परिवर्तित हुआ
Originally written on September 12, 2025 and last modified on September 12, 2025.

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