डिब्रू-सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान की जैव विविधता पर संकट: आक्रामक और देशज पौधों से बदलता पारिस्थितिकी तंत्र

पूर्वी असम के डिब्रू-सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान (DSNP), जो भारत में जंगली घोड़ों का एकमात्र निवास स्थल है, आजकल गंभीर पारिस्थितिक परिवर्तनों का सामना कर रहा है। हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि आक्रामक पौधों के साथ-साथ दो देशज पौधों ने भी इस नदी तटीय पारिस्थितिकी तंत्र को बदलने में भूमिका निभाई है।

देशज और आक्रामक पौधों का प्रभाव

बॉम्बैक्स सीबा (सिमालू) और लेजर्स्ट्रोमिया स्पेशियोसा (अजार) जैसे देशज फूलदार वृक्षों ने आक्रामक झाड़ियों जैसे क्रोमोलेना ओडोराटा, एगेराटम कोनिज़ोइड्स, पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस और मिकेनिया मिकरांथा के साथ मिलकर घास के मैदानों पर प्रभुत्व बनाना शुरू कर दिया है। ये बदलाव ब्रह्मपुत्र नदी की बार-बार आने वाली बाढ़ों और उद्यान की सीमा के भीतर बसे वन गांवों से उत्पन्न मानवीय दबावों के कारण और भी बढ़ गए हैं।

भू-आवरण परिवर्तन और पर्यावरणीय प्रभाव

1999 से 2024 तक के “लैंड यूज़ और लैंड कवर (LULC)” विश्लेषण से यह सामने आया कि 2000 में डिब्रू-सैखोवा में 28.78% क्षेत्र घास के मैदानों से आच्छादित था, जो धीरे-धीरे घटता चला गया। 2013 तक झाड़ी भूमि प्रमुख वर्ग बन गई और 2024 तक अपक्षयित वन (degraded forest) का क्षेत्र 80.52 वर्ग किमी तक बढ़ गया। इस परिवर्तन से यह संकेत मिलता है कि वन क्षेत्र का क्षरण तो हुआ ही है, साथ ही घासभूमियों में भारी गिरावट आई है।

घासभूमि-निर्भर जीवों पर खतरा

घासभूमियों के इस विघटन से कई विशिष्ट और संकटग्रस्त प्रजातियों पर संकट उत्पन्न हो गया है। अध्ययन में उल्लेख किया गया है कि बंगाल फ्लोरिकन, हॉग डियर और स्वैम्प ग्रास बैबलर जैसी प्रजातियाँ, जो केवल इस क्षेत्र की घासभूमियों में पाई जाती हैं, तेजी से घट रही हैं। डिब्रू-सैखोवा लगभग 200 जंगली घोड़ों का भी घर है, जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान छोड़े गए सैन्य घोड़ों की संताने हैं।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • डिब्रू-सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान असम के डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया जिलों में फैला है और इसका क्षेत्रफल लगभग 425 वर्ग किलोमीटर है।
  • यह उद्यान ब्रह्मपुत्र और डिब्रू नदियों के बीच स्थित एक द्वीप-जैसी संरचना है।
  • 1995 में इसे वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया गया और 1997 में UNESCO ने इसे बायोस्फीयर रिज़र्व घोषित किया।
  • 1999 में इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा प्राप्त हुआ।

समाधान और संरक्षण की दिशा

अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि डिब्रू-सैखोवा के संरक्षण के लिए एक लक्षित घासभूमि पुनःस्थापन परियोजना शुरू की जाए। इसमें आक्रामक पौधों को नियंत्रित करना, निगरानी प्रणाली को सुदृढ़ करना, मानव हस्तक्षेप कम करने के लिए वन गांवों का पुनर्वास करना और सामुदायिक संरक्षण प्रयासों को प्रोत्साहन देना शामिल है।

इस निष्कर्ष के साथ अध्ययन बताता है कि पारिस्थितिक संरचना और कार्यों को बचाए रखने हेतु वैज्ञानिक प्रबंधन नीतियाँ अत्यंत आवश्यक हैं। ऐसा न केवल जैव विविधता की रक्षा करेगा, बल्कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को भी कम करने में सहायक सिद्ध होगा।

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