जलवायु परिवर्तन से बढ़ सकता है ज्वालामुखी विस्फोटों का खतरा

हाल ही में एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में यह चेतावनी दी गई है कि ग्लेशियरों और बर्फ की टोपियों के पिघलने से ज्वालामुखी विस्फोटों की आवृत्ति और तीव्रता दोनों बढ़ सकती हैं। यह शोध 2025 के गोल्डश्मिट कॉन्फ्रेंस में प्रस्तुत किया गया, जो वर्तमान में प्राग में आयोजित हो रहा है और भू-रसायन शास्त्र पर दुनिया का सबसे बड़ा सम्मेलन माना जाता है।
पिघलती बर्फ और ज्वालामुखीय सक्रियता का संबंध
वैज्ञानिकों का मानना है कि आमतौर पर बर्फ की मोटी परतें ज्वालामुखी के नीचे स्थित मैग्मा कक्षों पर दबाव डालती हैं। लेकिन जब ये बर्फ की परतें पिघलती हैं, तो यह दबाव कम हो जाता है, जिससे अंदर की गैसें और मैग्मा फैलने लगते हैं। यह प्रक्रिया अंततः विस्फोटक ज्वालामुखीय गतिविधि को जन्म दे सकती है।
ऐसा पहले भी हो चुका है — आइसलैंड में जब पिछली बार प्रमुख डिग्लेशिएशन (लगभग 15,000 से 10,000 वर्ष पूर्व) हुई थी, तो ज्वालामुखी विस्फोटों की दर आज की तुलना में 30 से 50 गुना अधिक थी।
पश्चिम अंटार्कटिका सबसे अधिक खतरे में
अध्ययन में विशेष रूप से पश्चिम अंटार्कटिका को उच्च जोखिम वाला क्षेत्र बताया गया है। यहाँ लगभग 100 ज्वालामुखी मोटी बर्फ की परतों के नीचे दबे हुए हैं। जैसे-जैसे वैश्विक तापमान बढ़ रहा है, यह बर्फ आगामी दशकों और शताब्दियों में गायब हो सकती है, जिससे इन ज्वालामुखियों के फटने की संभावना बढ़ जाती है।
इसके अलावा, उत्तर अमेरिका, न्यूजीलैंड और रूस के कुछ हिस्सों में भी ज्वालामुखीय गतिविधियों में बढ़ोतरी देखी जा सकती है।
वर्षा और ज्वालामुखी विस्फोट
जलवायु परिवर्तन केवल तापमान और बर्फ पिघलने तक ही सीमित नहीं है; वर्षा की मात्रा और पैटर्न में भी बदलाव लाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, वर्षा का पानी ज्वालामुखी के नीचे गहराई तक जाकर मैग्मा प्रणाली के साथ प्रतिक्रिया कर सकता है, जिससे विस्फोट की संभावना और बढ़ जाती है।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- गोल्डश्मिट कॉन्फ्रेंस भू-रसायन शास्त्र पर केंद्रित दुनिया का सबसे बड़ा सम्मेलन है।
- आइसलैंड में पिछली डिग्लेशिएशन के दौरान ज्वालामुखी विस्फोटों की दर 30-50 गुना अधिक थी।
- पश्चिम अंटार्कटिका में लगभग 100 ज्वालामुखी बर्फ के नीचे छिपे हुए हैं।
- सल्फर डाइऑक्साइड के वायुमंडल में उत्सर्जन से पृथ्वी की सतह पर अस्थायी ठंडक उत्पन्न हो सकती है।
ज्वालामुखी विस्फोटों के दुष्परिणाम
विस्फोटों के दौरान वायुमंडल में धूल और राख के कण फैलते हैं, जो सूर्य की किरणों को रोक कर पृथ्वी की सतह को ठंडा कर सकते हैं। साथ ही, सल्फर डाइऑक्साइड सल्फ्यूरिक एसिड एरोसोल्स में परिवर्तित होकर लंबे समय तक वैश्विक शीतलन का कारण बनते हैं। लेकिन यदि ये विस्फोट लंबे समय तक होते हैं, तो कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पृथ्वी के तापमान में और वृद्धि कर सकता है।
यह एक दुष्चक्र बन सकता है — जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, अधिक बर्फ पिघलेगी, जिससे ज्वालामुखी विस्फोट होंगे और वातावरण में और अधिक ग्रीनहाउस गैसें मिलेंगी, जिससे तापमान और बढ़ेगा।
इस प्रकार, जलवायु परिवर्तन का प्रभाव केवल समुद्र स्तर या तापमान तक सीमित नहीं है; यह धरती के भीतर की भूगर्भीय गतिविधियों को भी बदल सकता है। आने वाले समय में इस विषय पर और अनुसंधान तथा सतर्कता की आवश्यकता होगी।