जलवायु अनुकूलन वित्तीय संकट: विकासशील देशों के लिए चुनौती

जलवायु अनुकूलन वित्तीय संकट: विकासशील देशों के लिए चुनौती

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की हाल ही में प्रकाशित ‘एडाप्टेशन गैप रिपोर्ट 2025’ ने दुनिया के सामने एक गंभीर चेतावनी रखी है: जलवायु अनुकूलन के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता समय पर नहीं मिल रही है। इस रिपोर्ट का शीर्षक — “रनिंग ऑन एंप्टी” — COP30 सम्मेलन से पहले जलवायु संकट के प्रति वैश्विक निष्क्रियता का प्रतीक बन गया है। अमीर देशों द्वारा विकासशील देशों को जलवायु आपदाओं के अनुकूल बनने में मदद के लिए किए गए वादे अधूरे हैं, जिससे भारत जैसे वैश्विक दक्षिण के देश खतरे में हैं।

जलवायु अनुकूलन: जीवन रक्षक, न कि व्यय

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा, “जलवायु प्रभाव तेजी से बढ़ रहे हैं, लेकिन अनुकूलन वित्तपोषण उसकी गति के साथ नहीं चल पा रहा है। अनुकूलन एक लागत नहीं, जीवन रेखा है।” जलवायु अनुकूलन वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत समाज जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने या उनसे बचने के उपाय करता है — जैसे कि बाढ़ से बचने के लिए तटबंध बनाना या सूखा-रोधी फसलें विकसित करना।

रिपोर्ट के आंकड़े: वादों और वास्तविकता के बीच गहरी खाई

रिपोर्ट के अनुसार, 2035 तक विकासशील देशों की जलवायु अनुकूलन आवश्यकताएं लगभग $310 से $365 अरब प्रति वर्ष तक पहुंचेंगी। इसके विपरीत, अमीर देशों से इन्हें मिलने वाला सार्वजनिक अनुकूलन वित्त 2023 में केवल $26 अरब रहा — 2022 से भी कम। यह अंतर मौजूदा वित्तीय प्रवाह से 12 से 14 गुना अधिक आवश्यकताओं को दर्शाता है।
2021 के ग्लासगो सम्मेलन में जहां अमीर देशों ने 2025 तक यह राशि $40 अरब प्रतिवर्ष तक बढ़ाने का वादा किया था, वहीं हालिया रिपोर्ट बताती है कि यह लक्ष्य भी अभी दूर है।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • ‘एडाप्टेशन गैप’ का तात्पर्य उस अंतर से है जो योजनाबद्ध अनुकूलन उपायों और वास्तविक क्रियान्वयन के बीच होता है।
  • ग्लासगो सम्मेलन (COP26) में अमीर देशों ने अनुकूलन वित्त को दोगुना करने का वादा किया था।
  • दक्षिण एशिया क्षेत्र की अनुकूलन वित्त आवश्यकता $112 अरब है, जो विश्व में दूसरे स्थान पर है।
  • भारत जल्द ही अपना राष्ट्रीय अनुकूलन योजना (NAP) जारी करने वाला है, हालांकि फरवरी 2025 की समयसीमा चूक चुका है।

भूराजनीतिक पृष्ठभूमि और भारत की स्थिति

इस बार की रिपोर्ट एक ऐसे वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में आई है जहां अमेरिका जैसे देश जलवायु परिवर्तन को लेकर पिछड़ रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप के पेरिस समझौते से हटने और विदेशी सहायता कार्यक्रम बंद करने जैसे फैसलों ने विकासशील देशों की चिंता बढ़ा दी है। भारत जैसे देश, जो जलवायु वित्त और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के पक्षधर हैं, अब और भी अधिक दबाव में हैं।
रिपोर्ट में भारतीय रिज़र्व बैंक के 2022 के एक सर्वेक्षण का उल्लेख है, जिसमें वाणिज्यिक बैंकों की जलवायु जोखिमों को समझने और उनके वित्तीय पोर्टफोलियो को अधिक लचीला बनाने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।

Originally written on October 31, 2025 and last modified on October 31, 2025.

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