ग्रेट निकोबार परियोजना: आदिवासी अधिकारों और पर्यावरण के भविष्य पर मंडराता संकट

भारत के सबसे अनोखे और जैव-विविधता से समृद्ध द्वीप क्षेत्रों में से एक — ग्रेट निकोबार — आज ₹72,000 करोड़ की एक महत्वाकांक्षी लेकिन विवादास्पद मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना के कारण गंभीर संकट में है। यह परियोजना जहां एक ओर आर्थिक विकास और सामरिक रणनीति के नाम पर पेश की जा रही है, वहीं दूसरी ओर यह द्वीप के मूल निवासी आदिवासी समुदायों, जैविक पारिस्थितिकी तंत्र और संवेदनशील भूकंपीय क्षेत्र को अनदेखा कर के बनाई जा रही है।

आदिवासी समुदायों का विस्थापन

ग्रेट निकोबार द्वीप पर दो आदिवासी समुदाय निवास करते हैं — निकोबारी और शम्पेन जनजाति। 2004 की सुनामी में विस्थापित हुए निकोबारी आज भी अपनी पुरखों की भूमि में लौटने की आस लगाए बैठे हैं, लेकिन यह परियोजना उनके पुनर्वास की आशा को स्थायी रूप से समाप्त कर सकती है। वहीं, शम्पेन जनजाति को एक विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTG) के रूप में मान्यता प्राप्त है।
परियोजना के तहत इनकी संरक्षित भूमि को डिनोटिफाई किया गया है, और इनके निवास क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बाहरी आबादी व पर्यटकों का आगमन होगा। इससे इनकी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था और पारंपरिक आजीविका पर गहरा आघात पड़ेगा।
यह विडंबना है कि संविधान के अनुच्छेद 338-A और वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 में निहित कानूनी सुरक्षा के बावजूद, न तो राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग से परामर्श किया गया, न ही शम्पेन जनजाति को इस परियोजना में हिस्सेदार बनाया गया। यहां तक कि स्थानीय जनजातीय परिषद की सहमति को भी दबाव में हासिल किया गया और बाद में उन्होंने उसे रद्द कर दिया।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • ₹72,000 करोड़ की लागत वाली यह परियोजना एक पोर्ट, एयरपोर्ट, टाउनशिप और पावर प्लांट निर्माण को शामिल करती है।
  • शम्पेन जनजाति, भारत के सबसे कम जनसंख्या वाले और संवेदनशील PVTG में से एक है।
  • पर्यावरण मंत्रालय का अनुमान है कि 8.5 लाख पेड़ काटे जाएंगे, जबकि स्वतंत्र आंकलन इसे 32 से 58 लाख तक बताते हैं।
  • नियोजित पुनः वनीकरण हरियाणा में होगा — जो न केवल भौगोलिक रूप से असंगत है, बल्कि इसकी एक-चौथाई भूमि को खनन के लिए नीलाम भी कर दिया गया है।
  • निर्माण क्षेत्र CRZ 1A (कोस्टल रेगुलेशन ज़ोन) में आता है जहां निर्माण प्रतिबंधित है, फिर भी इसकी श्रेणी बदलने के लिए साक्ष्य छिपाए गए।

पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय जोखिम

यह परियोजना जैव विविधता और पारिस्थितिकीय संतुलन के लिए भी अत्यंत विनाशकारी है। निकोबार लॉन्ग-टेल मैकाक, समुद्री कछुए, डुगोंग जैसे संकटग्रस्त प्रजातियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। अध्ययन और मूल्यांकन के तरीके भी सवालों के घेरे में हैं — जैसे कछुओं का आकलन उनके प्रजनन ऋतु के बाहर किया गया और डुगोंग का मूल्यांकन उथले पानी में सीमित क्षमता वाले ड्रोन से किया गया।
इस द्वीप की स्थिति एक भूकंप और सुनामी-प्रवण क्षेत्र में है। 2004 की सुनामी में यहां की ज़मीन 15 फीट तक नीचे धंस गई थी। हाल ही में जुलाई 2025 में आए 6.2 तीव्रता वाले भूकंप ने इस जोखिम को फिर से उजागर कर दिया है।

एक नीतिगत विफलता

यह परियोजना न केवल पर्यावरण और स्थानीय संस्कृति को खतरे में डालती है, बल्कि नीति-निर्माण और प्रशासन की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े करती है। सामाजिक प्रभाव आकलन (SIA) से लेकर वन अधिकार अधिनियम तक की प्रक्रियाओं की अनदेखी की गई है। ‘विकास’ के नाम पर ऐसा प्रयास, जो संवैधानिक मूल्यों और मानवीय करुणा को तिलांजलि देता है, निंदनीय है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम सतत विकास, समावेशी नीति और पर्यावरणीय संतुलन के सिद्धांतों पर अडिग रहें। ग्रेट निकोबार परियोजना जैसी योजनाएं, यदि स्थानीय जनजातियों, पारिस्थितिकी और भूगर्भीय जोखिमों को नजरअंदाज कर आगे बढ़ाई जाएंगी, तो वे एक दिन केवल दस्तावेज़ी चेतावनियों में नहीं, बल्कि भयानक मानवीय और प्राकृतिक आपदाओं में बदल जाएंगी।

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