गिद्धों की रक्षा से महामारी की रोकथाम तक: जैव विविधता और सार्वजनिक स्वास्थ्य की नई कड़ी

जब हम महामारी की तैयारी की बात करते हैं, तो हमारे ज़हन में टीके, प्रयोगशालाएं और पीपीई किट पहने स्वास्थ्यकर्मी आते हैं। लेकिन क्या कभी आपने एक आकाश में मंडराता गिद्ध महामारी से बचाव का प्रतीक माना है? शायद नहीं। परंतु भारत जैसे देश में गिद्ध न केवल पारिस्थितिकी तंत्र के ‘सफाईकर्मी’ हैं, बल्कि महामारी की रोकथाम की एक अनदेखी कड़ी भी हैं।

गिद्धों की गिरती आबादी: एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट

1980 के दशक तक भारत में 40 मिलियन से अधिक गिद्ध पाए जाते थे, लेकिन 1990 के बाद डायक्लोफेनाक जैसे विषैले पशु औषधियों के कारण इनकी संख्या में 95% से अधिक की गिरावट आई। यह केवल पारिस्थितिकीय हानि नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे उभरती एक सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती भी है। मरे हुए पशुओं को खाकर गिद्ध रोगजनकों जैसे एंथ्रैक्स, क्लॉस्ट्रिडियम बोटुलिनम और रेबीज के प्रसार को रोकते हैं। उनके बिना ये मृत शरीर बीमारियों के फैलाव का केंद्र बन सकते हैं।

सेंट्रल एशियन फ्लाईवे (CAF): एक जैव विविधता और स्वास्थ्य गलियारा

भारत में पाई जाने वाली कई गिद्ध प्रजातियाँ — जैसे हिमालयन ग्रिफॉन, सिनेरियस वल्चर और यूरेशियन ग्रिफॉन — CAF नामक प्रवासी मार्ग से जुड़ी हुई हैं, जो मध्य एशिया से लेकर दक्षिण एशिया तक फैला है। यह गलियारा केवल पक्षियों का मार्ग नहीं, बल्कि क्षेत्रीय स्वास्थ्य जोखिमों को जोड़ने वाला माध्यम भी है। यदि लैंडफिल या कैरियन साइट्स सही तरीके से प्रबंधित नहीं होते, तो ये ‘स्पिलओवर हॉटस्पॉट’ बन सकते हैं, जहाँ रोगजनक जानवरों से इंसानों में फैल सकते हैं।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • भारत की गिद्ध आबादी 1990 के बाद 95% से अधिक घट चुकी है।
  • डायक्लोफेनाक एक प्रमुख कारण रहा, जिसे 2006 में पशु उपयोग के लिए प्रतिबंधित किया गया।
  • सेंट्रल एशियन फ्लाईवे (CAF) 30 से अधिक देशों से होकर गुजरता है।
  • भारत का वर्तमान गिद्ध संरक्षण कार्ययोजना (2016-2025) जल्द पूर्ण होने को है।
  • WHO के दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्रीय रोडमैप (2023–27) के तहत जैव विविधता से जुड़े स्वास्थ्य सुरक्षा उपायों को बढ़ावा दिया गया है।

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