क्या बार-बार चुनाव भारत की प्रगति में बाधा हैं?

भारत, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, में चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का माध्यम नहीं, बल्कि लोकतंत्र का उत्सव माने जाते हैं। करोड़ों नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं, जिससे शासन की दिशा तय होती है और जनमत की शक्ति परिलक्षित होती है। परंतु इस उत्सव के पीछे एक गंभीर प्रश्न छिपा है — क्या बार-बार चुनाव वाकई लोकतंत्र को मजबूत कर रहे हैं या देश की प्रगति को बाधित कर रहे हैं?
आर्थिक भार और विकास पर प्रभाव
भारत में चुनाव दुनिया के सबसे महंगे चुनावों में गिने जाते हैं। हाल के लोकसभा चुनावों में केवल चुनाव आयोग की लागत ही लगभग ₹1.35 लाख करोड़ थी। यदि राजनीतिक दलों, प्रचार, रैलियों और अन्य गतिविधियों के खर्च को जोड़ लिया जाए, तो यह आंकड़ा ₹5-7 लाख करोड़ तक पहुंचता है। एक विकासशील देश के लिए यह अत्यधिक आर्थिक बोझ है। यदि इस राशि का एक अंश भी शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास या कृषि सुधारों में लगाया जाए, तो देश की दिशा ही बदल सकती है।
इसके अतिरिक्त, चुनाव आचार संहिता के बार-बार लागू होने से विकास कार्य रुक जाते हैं। सड़कें, पुल, बिजली संयंत्र, जल आपूर्ति जैसी योजनाएं अधूरी रह जाती हैं। चुनावी वादों के नाम पर योजनाएं तो घोषित होती हैं, परंतु कई बार उनका क्रियान्वयन अधर में रह जाता है।
मानव संसाधन और प्रशासनिक व्यवधान
भारत जैसे विशाल देश में चुनाव कराना एक कठिन कार्य है। एक लोकसभा चुनाव में ही 10 लाख से अधिक मतदान केंद्रों और एक करोड़ से अधिक कर्मचारियों की आवश्यकता होती है। इनमें शिक्षक, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, स्वास्थ्यकर्मी और अन्य सरकारी कर्मचारी शामिल होते हैं। इससे शिक्षा, स्वास्थ्य और प्रशासनिक सेवाएं प्रभावित होती हैं। आंकड़ों के अनुसार, एक पंचवर्षीय चक्र में लगभग 200 कार्य दिवस केवल चुनावों में व्यतीत हो जाते हैं।
पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव
चुनाव प्रचार में बैनर, पोस्टर, फ्लेक्स और पंपलेट्स की भरमार होती है। विशाल रैलियों में गाड़ियों, हेलीकॉप्टरों और विमानों का उपयोग होता है, जिससे भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होता है। यह सब उस समय में हो रहा है जब दुनिया जलवायु परिवर्तन की चुनौती से जूझ रही है। साथ ही, प्रचार सामग्री से उत्पन्न कचरा शहरों और गांवों की सफाई व्यवस्था पर अतिरिक्त दबाव डालता है।
सामाजिक दृष्टि से भी बार-बार चुनाव समाज में विभाजन को बढ़ावा देते हैं। चुनावों को नीतियों और शासन के बजाय जाति, धर्म और भाषा के आधार पर लड़ा जाने लगा है। इससे सामाजिक एकता पर आघात पहुंचता है और लोकतंत्र की एकजुट करने वाली शक्ति कमजोर होती है।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- भारत में लोकसभा चुनावों की लागत (2024): चुनाव आयोग की रिपोर्ट के अनुसार ₹1.35 लाख करोड़ से अधिक।
- चुनाव आचार संहिता: चुनाव घोषित होते ही लागू होती है, जिससे कोई भी नई योजना या घोषणा नहीं की जा सकती।
- “एक राष्ट्र, एक चुनाव” की सिफारिश: विधि आयोग, नीति आयोग और अनेक विशेषज्ञ इस प्रस्ताव के पक्ष में रहे हैं।
- पंचवर्षीय चक्र में खोए कार्यदिवस: अनुमानित 200 कार्य दिवस केवल चुनाव प्रक्रिया में खर्च होते हैं।