कोयला आधारित ताप बिजली संयंत्रों को SO2 नियंत्रण उपकरणों से छूट: पर्यावरणीय और नीति पक्ष

भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने 11 जुलाई को एक अहम फैसला लेते हुए देश के अधिकांश कोयला आधारित ताप बिजली संयंत्रों को सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) उत्सर्जन नियंत्रण उपकरण, जिन्हें फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन (FGD) कहा जाता है, लगाने से छूट दे दी है। यह निर्णय उस समय आया है जब SO2 उत्सर्जन और उससे उत्पन्न PM2.5 प्रदूषण देश के वायु गुणवत्ता संकट में बड़ा योगदान दे रहे हैं।
SO2 उत्सर्जन और इसका प्रभाव
सल्फर डाइऑक्साइड एक जहरीली गैस है जो मुख्यतः कोयला जलाने से उत्सर्जित होती है। जब यह गैस वातावरण में पहुंचती है, तो यह अमोनिया के साथ प्रतिक्रिया कर अमोनियम सल्फेट में बदल जाती है, जो कि PM2.5 नामक सूक्ष्म कण प्रदूषण का एक प्रमुख स्रोत है। PM2.5 कण सांस के जरिए शरीर में प्रवेश कर कई बीमारियों जैसे अस्थमा, हृदयघात, ब्रोंकाइटिस और फेफड़ों की बीमारियों का कारण बनते हैं।
इतना ही नहीं, SO2 अम्लीय वर्षा (acid rain) में भी योगदान देता है, जो जल स्रोतों, मृदा और वनस्पतियों को नुकसान पहुंचा सकता है। भारत में SO2 उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत बिजली उत्पादन क्षेत्र है, विशेषकर कोयला आधारित संयंत्र।
नियमों में बदलाव और उसकी पृष्ठभूमि
2015 में पर्यावरण मंत्रालय ने पहली बार SO2 सहित हानिकारक उत्सर्जनों पर नियंत्रण हेतु मानदंड निर्धारित किए थे, जिसके तहत सभी ताप बिजली संयंत्रों को दिसंबर 2017 तक FGD उपकरण स्थापित करने थे। हालांकि, संयंत्रों की ओर से लागत और बिजली आपूर्ति में बाधा की आशंका जताते हुए समय-सीमा को कई बार आगे बढ़ाया गया।
2021 में सरकार ने संयंत्रों को A, B और C श्रेणियों में बाँटकर अलग-अलग समय-सीमाएं तय की थीं। परंतु अब ताजा बदलाव के तहत C श्रेणी (जो कुल संयंत्रों का 78% है) को पूरी तरह से FGD लगाने से छूट मिल गई है। A श्रेणी के संयंत्रों को 2027 तक और B श्रेणी को मामले-दर-मामले आधार पर देखा जाएगा।
सरकार के तर्क और विशेषज्ञों की आलोचना
सरकार का दावा है कि IIT-दिल्ली, NIAS और NEERI की तीन अध्ययनों के आधार पर यह फैसला लिया गया है, जिनके अनुसार ताप संयंत्रों के आसपास के SO2 स्तर पहले से ही तय मानकों के भीतर हैं। इन अध्ययनों में यह भी कहा गया है कि FGD उपकरणों से CO2 और PM प्रदूषण में वृद्धि देखी गई है।
लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि ये दावे भ्रामक हैं। CREA और CSE जैसी संस्थाओं का तर्क है कि FGD उपकरणों से दूरगामी लाभ होते हैं, क्योंकि ताप संयंत्रों से निकले धुएं का असर 300 किमी तक होता है और इससे बनने वाले द्वितीयक प्रदूषकों की गणना वर्तमान निगरानी प्रणालियों से संभव नहीं है। CREA ने कहा कि सरकारी निगरानी स्टेशन वायुप्रदूषण के रासायनिक परिवर्तन को नहीं मापते, जिससे असली प्रभाव छिप जाता है।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- भारत में कोयला आधारित ताप संयंत्र बिजली उत्पादन का लगभग 70% हिस्सा बनाते हैं।
- FGD तकनीक में चूना पत्थर का प्रयोग कर SO2 को सल्फेट में बदला जाता है।
- PM2.5 WHO के अनुसार सबसे खतरनाक वायु प्रदूषकों में शामिल है।
- 2019 की तुलना में 2023 में भारत में SO2 स्तरों में वृद्धि देखी गई है।
सरकार का यह कदम देश की ऊर्जा आवश्यकताओं और प्रदूषण नियंत्रण के बीच संतुलन साधने का प्रयास बताया जा रहा है, लेकिन विशेषज्ञों की चेतावनी है कि अल्पकालिक बचत के बदले दीर्घकालिक स्वास्थ्य और पर्यावरणीय नुकसान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आगे की नीति इस बात पर निर्भर करेगी कि भारत स्वच्छ ऊर्जा की ओर कितनी तेजी से संक्रमण करता है।