एशियाई देशों की बढ़ती सीसीएस निर्भरता से 2050 तक 25 अरब टन अतिरिक्त उत्सर्जन का खतरा: रिपोर्ट

क्लाइमेट एनालिटिक्स (Climate Analytics) की एक नई रिपोर्ट के अनुसार, एशियाई देशों द्वारा जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन को कम करने के लिए कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (CCS) तकनीक पर बढ़ता भरोसा, 2050 तक लगभग 25 अरब टन अतिरिक्त ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का कारण बन सकता है। यह प्रवृत्ति न केवल पेरिस समझौते (Paris Agreement) के लक्ष्यों को कमजोर करेगी बल्कि इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को भी दीर्घकालिक जोखिमों में डाल सकती है।
क्या है कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (CCS)?
सीसीएस एक तकनीक है जो विद्युत संयंत्रों और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) को वातावरण में जाने से रोककर भूमिगत भूगर्भीय संरचनाओं में संग्रहित करती है। इसका उद्देश्य उत्सर्जन को घटाना है, लेकिन रिपोर्ट के अनुसार, यह तकनीक अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही है और इसकी प्रभावशीलता व लागत दोनों ही संदिग्ध हैं।
रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष
रिपोर्ट में चीन, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया में मौजूदा और प्रस्तावित सीसीएस परियोजनाओं का विश्लेषण किया गया। ये देश मिलकर वैश्विक जीवाश्म ईंधन खपत और उत्सर्जन के आधे से अधिक हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं।रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों में उत्सर्जन अब भी अपने चरम स्तर पर नहीं पहुंचा है, जबकि उन्हें जल्द से जल्द इस बिंदु तक पहुंचकर घटाव की दिशा में जाना होगा।
भारत की स्थिति और संभावनाएँ
भारत वर्तमान में सीसीएस तकनीक के क्षेत्र में बहुत पीछे है, जबकि चीन इस क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया के बाद एशिया का दूसरा सबसे बड़ा खिलाड़ी बन चुका है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत, जो इस्पात और सीमेंट उत्पादन में प्रमुख भूमिका निभाता है, भविष्य में इन कठिन-से-घटने वाले क्षेत्रों में सीसीएस पर निर्भर हो सकता है।हालांकि, रिपोर्ट के अनुसार, नवीकरणीय ऊर्जा, ग्रीन हाइड्रोजन और विद्युतीकरण जैसे विकल्प न केवल सस्ते हैं, बल्कि जलवायु के लिए अधिक सुरक्षित भी हैं।
आर्थिक और तकनीकी जोखिम
रिपोर्ट में यह भी चेतावनी दी गई कि वैश्विक स्तर पर सीसीएस परियोजनाएँ औसतन केवल 50% उत्सर्जन को ही पकड़ने में सफल रही हैं, जबकि उद्योग जगत 90-95% क्षमता का दावा करता है।ऊर्जा क्षेत्र में सीसीएस अपनाने से बिजली की लागत दोगुनी हो सकती है, जबकि नवीकरणीय ऊर्जा भंडारण प्रणालियों के साथ पहले से ही अधिक किफायती विकल्प प्रदान कर रही है।जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देश सीसीएस को नीति और वित्तीय सहायता प्रदान कर रहे हैं, जबकि ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण-पूर्व एशिया इसे कार्बन भंडारण हब के रूप में विकसित करने की दिशा में काम कर रहे हैं।
एशिया के सामने निर्णायक विकल्प
क्लाइमेट एनालिटिक्स के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बिल हेयर ने कहा, “एशियाई देशों के पास अभी विकल्प है — या तो वे जीवाश्म ईंधन उद्योग की रक्षा के लिए सीसीएस पर निर्भर रहें, या नवीकरणीय ऊर्जा और दक्षता के रास्ते पर चलें। सीसीएस पर अत्यधिक भरोसा न केवल पेरिस समझौते के 1.5°C लक्ष्य को खतरे में डालेगा, बल्कि इन अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी जोखिम पैदा करेगा।”रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि “लो-सीसीएस मार्ग” अपनाते हुए नवीकरणीय ऊर्जा विस्तार, विद्युतीकरण और ऊर्जा दक्षता को प्राथमिकता देना एशिया के लिए अधिक लागत-प्रभावी और जलवायु-संरेखित विकल्प होगा।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- सीसीएस (Carbon Capture and Storage) का उद्देश्य औद्योगिक उत्सर्जन को भूमिगत भंडारण द्वारा कम करना है।
- पेरिस समझौता (2015) का लक्ष्य वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5°C तक सीमित रखना है।
- भारत COP30 (नवंबर 2025) में अपने नए कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य (NDCs) प्रस्तुत करेगा।
- क्लाइमेट एनालिटिक्स एक वैश्विक शोध संस्थान है जो जलवायु विज्ञान और नीति पर कार्य करता है।