एकल माँ और ओबीसी प्रमाणपत्र विवाद: लैंगिक समानता पर उठते सवाल

एकल माँ और ओबीसी प्रमाणपत्र विवाद: लैंगिक समानता पर उठते सवाल

23 जून को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एकल माताओं के बच्चों को अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) प्रमाणपत्र देने के दिशा-निर्देशों की कमी पर चिंता जताई। यह मामला एक ऐसी याचिका से जुड़ा है जिसमें एक एकल माँ ने, जो स्वयं ओबीसी वर्ग से हैं, अपने बच्चे के लिए ओबीसी प्रमाणपत्र की माँग की है। यह मामला न केवल सामाजिक न्याय से संबंधित है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार की परीक्षा भी लेता है।

याचिका का सार और कानूनी पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता ने यह तर्क दिया कि यदि माँ स्वयं ओबीसी वर्ग से है और वह अकेले ही अपने बच्चे की परवरिश कर रही है, तो उसका बच्चा भी उसी जातीय श्रेणी में माना जाना चाहिए। वर्तमान दिशानिर्देशों के अनुसार, ओबीसी प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए पितृपक्ष की ओर से प्रमाण प्रस्तुत करना आवश्यक होता है। यह प्रथा उस स्थिति में असंगत हो जाती है जब पिता अनुपस्थित हो या माँ ही एकमात्र अभिभावक हो।
याचिका में इस व्यवस्था को संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन बताया गया है।

पूर्ववर्ती निर्णय और उनकी व्याख्या

सर्वोच्च न्यायालय ने 2012 के “रमेशभाई डाभाई नाईका बनाम गुजरात राज्य” मामले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि किसी अंतरजातीय विवाह में बच्चे की जाति पिता से मानी जा सकती है, पर यह कोई अपरिवर्तनीय नियम नहीं है। यदि बच्चा माँ की जाति के सामाजिक वातावरण में पला-बढ़ा है और समाज से उसी जाति के व्यक्ति जैसा व्यवहार पाया है, तो उसकी जाति माँ से भी मानी जा सकती है।
दिल्ली उच्च न्यायालय के 2019 के “रूमी चौधरी बनाम दिल्ली सरकार” मामले में एक एकल माँ की याचिका खारिज की गई थी, क्योंकि वह यह प्रमाणित नहीं कर पाई थीं कि उनके बच्चों ने अनुसूचित जाति समुदाय से जुड़ी सामाजिक विषमताओं का सामना किया है। वहीं 2024 के “मूनसून बरककोटी बनाम असम राज्य” मामले में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने उस अधिकारी के ओबीसी प्रमाणपत्र को मान्यता दी, जिसकी परवरिश उसकी ओबीसी माँ ने की थी, और जो सामाजिक रूप से उसी समुदाय में पली-बढ़ी थी।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • भारत में वर्तमान में जाति प्रमाणपत्र मुख्यतः पितृपक्षीय वंशानुक्रम के आधार पर दिए जाते हैं।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि जाति पहचान सामाजिक अनुभव और समुदाय में एकीकरण पर आधारित हो सकती है।
  • “रमेशभाई डाभाई नाईका” मामला इस विषय में एक प्रमुख न्यायिक मिसाल है।
  • अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार, सभी नागरिकों को जाति, लिंग या धर्म के आधार पर भेदभाव से सुरक्षा प्रदान करता है।

यह मामला केवल एक कानूनी विवाद नहीं है, बल्कि यह सामाजिक संरचनाओं की समीक्षा और महिला अधिकारों की रक्षा का भी मुद्दा है। यदि एकल माँ का बच्चा उसी समुदाय की सामाजिक परिस्थितियों में बड़ा हो रहा है, तो उसे समान अवसर प्रदान करना संविधान की भावना के अनुरूप होगा। न्यायालय का आगामी निर्णय इस दिशा में एक महत्वपूर्ण मानक स्थापित कर सकता है।

Originally written on July 3, 2025 and last modified on July 3, 2025.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *