ईरान की परमाणु नीति और ट्रम्प की “अधिकतम दबाव” (Maximum Pressure) रणनीति क्यों बढ़ा रही है वैश्विक तनाव?

ईरान का परमाणु कार्यक्रम और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की “अधिकतम दबाव” नीति ने वैश्विक कूटनीति में तनाव को चरम पर पहुंचा दिया है। ट्रम्प ने अपने दूसरे कार्यकाल में इस नीति को फिर से लागू कर दिया है। इसका उद्देश्य ईरान की अर्थव्यवस्था को कमजोर करना, उसकी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को सीमित करना और परमाणु हथियार विकसित करने की उसकी क्षमता को समाप्त करना है। ईरान ने भी जवाब में अपने परमाणु कार्यक्रम को तेज किया है और साथ ही क्षेत्रीय गतिविधियों को भी बढ़ावा देना शुरू कर दिया है।

ईरान के परमाणु कार्यक्रम का इतिहास और उद्देश्य

ईरान का परमाणु कार्यक्रम 1950 के दशक में शुरू हुआ था। उस समय ईरान के शासक शाह मोहम्मद रजा पहलवी को अमेरिका ने “एटम्स फॉर पीस” (Atoms for Peace) पहल के तहत परमाणु सहायता प्रदान की थी। लेकिन 1979 में इस्लामी क्रांति के बाद, यह कार्यक्रम पश्चिमी देशों के लिए चिंता का विषय बन गया, क्यूंकी अब नाभिकीय शक्ति ईरान के इस्लामिक कट्टरपंथियों के कब्जे में जाने का डर बैठ गया। हालांके, ईरान का दावा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम ऊर्जा उत्पादन और चिकित्सा अनुसंधान के लिए है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र और पश्चिमी खुफिया एजेंसियां इसे हथियार विकसित करने की कोशिश मानती हैं। 2015 में, संयुक्त व्यापक कार्य योजना (JCPOA) ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर अंकुश लगाने की कोशिश की, लेकिन 2018 में ट्रम्प के पहले कार्यकाल में अमेरिका ने इस समझौते से हटने का फैसला किया। अब तक ईरान ने यूरेनियम को 60% तक संवर्धित कर लिया है, जो परमाणु हथियार के लिए आवश्यक 90% के करीब है। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के अनुसार, ईरान के पास 5,500 से अधिक सेंट्रीफ्यूज हैं, और उसने निरीक्षणों को सीमित कर दिया है, जिससे पारदर्शिता पर भी सवाल उठे हैं। ईरान का कहना है कि यह कदम JCPOA से अमेरिका के हटने का जवाब है, जिसने उसकी अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचाई।

ट्रम्प की “अधिकतम दबाव” नीति का पुनर्जनन

ट्रम्प ने 2017 में अपनी पहली पारी में “अधिकतम दबाव” (Maximum Pressure) नीति शुरू की थी, जिसे उन्होंने 2025 में फिर से लागू किया। इस नीति में ईरान पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध, तेल निर्यात पर रोक और वैश्विक वित्तीय प्रणाली से अलगाव शामिल है। मई 2025 में, ट्रम्प प्रशासन ने ईरान के तेल और पेट्रोकेमिकल खरीदने वाले देशों पर “माध्यमिक प्रतिबंध” लगाने की घोषणा की। इसका उद्देश्य ईरान की आय को कम करना है, जो सरकार को सैन्य और परमाणु गतिविधियों के लिए धन देती है।

ट्रम्प ने एक बयान में कहा कि वह ईरान के परमाणु कार्यक्रम का “पूर्ण विघटन” चाहते हैं। इस नीति को इज़राइल और सऊदी अरब जैसे सहयोगियों का समर्थन प्राप्त है, जो ईरान को क्षेत्रीय खतरा मानते हैं। हालांकि, इस नीति की आलोचना भी हुई है, क्योंकि यह ईरान को कूटनीति के बजाय आक्रामकता की ओर धकेल सकती है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि 2018-2021 के दौरान इस नीति ने ईरान को परमाणु समझौते से और दूर कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप उसने संवर्धन गतिविधियां तेज कर दीं।

हाल की घटनाएं और सैन्य तनाव

मई 2025 में, अमेरिका और ईरान के बीच परमाणु वार्ताएं विफल रही हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने प्रस्ताव रखा कि ईरान शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा के लिए यूरेनियम आयात कर सकता है, लेकिन उसे संवर्धन बंद करना होगा। ईरान ने इसे खारिज कर दिया, क्योंकि वह संवर्धन को अपनी संप्रभुता का प्रतीक मानता है। ट्रम्प ने चेतावनी दी कि परमाणु हथियार विकसित करने की कोशिश “विनाशकारी परिणाम” लाएगी। इसके जवाब में, अमेरिका ने हिंद महासागर में अपनी सैन्य तैनाती बढ़ा दी, जिसमें यूएसएस अब्राहम लिंकन विमानवाहक पोत और B-52 बमवर्षक शामिल हैं। ईरान ने अपनी मिसाइल क्षमता का प्रदर्शन किया, जिसमें 2,500 किलोमीटर की रेंज वाली खोर्रमशहर-4 बैलिस्टिक मिसाइल शामिल है, जो इज़राइल और अमेरिकी ठिकानों को निशाना बना सकती है। मई 2025 में, ईरान ने होर्मुज जलडमरूमध्य में एक तेल टैंकर को जब्त किया, जिसे वैश्विक तेल आपूर्ति के लिए खतरा माना गया। यह जलडमरूमध्य विश्व के 20% तेल व्यापार का मार्ग है, और इसकी सुरक्षा वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है।

अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया और कूटनीति

ट्रम्प की नीति ने वैश्विक समुदाय को दो खेमों में बांट दिया है। इज़राइल और सऊदी अरब ने इसका समर्थन किया, क्योंकि वे ईरान के क्षेत्रीय प्रभाव से चिंतित हैं। इज़राइल ने हाल ही में लेबनान में हिजबुल्लाह के ठिकानों पर हमले किए, जो ईरान समर्थित समूह है। दूसरी ओर, यूरोपीय संघ, विशेष रूप से फ्रांस और जर्मनी, ने कूटनीति पर जोर दिया और JCPOA को पुनर्जनन की मांग की। रूस और चीन ने ईरान के साथ सहयोग बढ़ाया, जिसमें सैन्य हार्डवेयर और तकनीकी सहायता शामिल है। रूस ने ईरान को S-400 वायु रक्षा प्रणाली की आपूर्ति की है, जो उसके हवाई क्षेत्र को मजबूत करती है। भारत, जो ईरान के साथ चाबहार बंदरगाह परियोजना और तेल व्यापार में रुचि रखता है, ने तटस्थ रुख अपनाया। मई 2025 में, भारत ने क्षेत्रीय स्थिरता के लिए कूटनीतिक समाधान की वकालत की, क्योंकि मध्य पूर्व में अस्थिरता भारत की ऊर्जा सुरक्षा को प्रभावित कर सकती है। भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक है, और ईरान उसका एक महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता रहा है।

ईरान की जवाबी रणनीति और क्षेत्रीय प्रभाव

ईरान ने “अधिकतम दबाव” का जवाब “अधिकतम प्रतिरोध” नीति के साथ दिया है। उसने परमाणु संवर्धन को तेज करने के साथ-साथ क्षेत्रीय प्रभाव बढ़ाने की कोशिश की। ईरान समर्थित समूहों, जैसे यमन में हूती विद्रोही और इराक में हशद अल-शाबी, ने अमेरिकी और सहयोगी ठिकानों पर हमले किए। मई 2025 में, हूती विद्रोहियों ने लाल सागर में एक सऊदी तेल टैंकर पर ड्रोन हमला किया, जिससे तेल की कीमतों में 5% की वृद्धि हुई। ईरान ने अपनी अर्थव्यवस्था को प्रतिबंधों से बचाने के लिए तस्करी नेटवर्क और क्रिप्टोकरेंसी का उपयोग शुरू किया। हालांकि, प्रतिबंधों के कारण ईरान की अर्थव्यवस्था संकट में है, जिसमें मुद्रास्फीति 45% से अधिक है और रियाल का मूल्य ऐतिहासिक निचले स्तर पर है। ईरान ने क्षेत्रीय सहयोगियों के साथ सैन्य अभ्यास भी किए, जिसमें रूस और चीन के साथ संयुक्त नौसैनिक युद्धाभ्यास शामिल है। यह रणनीति वैश्विक शक्तियों के बीच संतुलन बनाने और दबाव को कम करने का प्रयास है।

आर्थिक और सामाजिक प्रभाव

ट्रम्प की नीति ने ईरान की अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचाई है। 2025 में, ईरान का तेल निर्यात 2018 के 2.5 मिलियन बैरल प्रतिदिन से घटकर 500,000 बैरल प्रतिदिन हो गया। इससे सरकारी राजस्व में 70% की कमी आई। ईरान की जनता पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा, जिसमें खाद्य और दवा की कमी आम हो गई है। तेहरान में विरोध प्रदर्शन बढ़े हैं, जहां लोग आर्थिक संकट के लिए सरकार और पश्चिमी प्रतिबंधों को दोषी ठहराते हैं। हालांकि, इन प्रदर्शनों को इस्लामी क्रांतिकारी गार्ड (IRGC) ने दबा दिया, जो ईरान की सत्ता का मुख्य आधार है। दूसरी ओर, ट्रम्प की नीति ने वैश्विक तेल बाजार को अस्थिर किया है। मई 2025 में, ब्रेंट क्रूड की कीमत 85 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई, जो उपभोक्ता देशों, विशेष रूप से विकासशील अर्थव्यवस्थाओं, के लिए चुनौती है।

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