आदिवासी महिलाओं की संपत्ति में बराबरी: सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नई दिशा

भारत में 9 अगस्त को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाया जाता है, लेकिन आदिवासी समाज विशेषकर महिलाओं के संपत्ति अधिकारों पर चिंतन किसी एक दिन तक सीमित नहीं रहना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का 17 जुलाई 2025 का निर्णय — रामचरण बनाम सुखराम — इस विषय को और प्रासंगिक बना देता है, जिसमें बेटियों को पुश्तैनी संपत्ति से वंचित करना उनके समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन माना गया है। इस ऐतिहासिक फैसले ने आदिवासी महिलाओं के भूमि अधिकारों पर नई बहस छेड़ दी है।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला और उसका प्रभाव

छत्तीसगढ़ के सरगुजा ज़िले की धईया नामक अनुसूचित जनजाति (ST) महिला के वारिसों ने अपने नाना की संपत्ति में हिस्सेदारी की मांग की थी। हालांकि ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय न्यायालय ने गोंड जनजाति में महिलाओं को संपत्ति अधिकार न मिलने की प्रथा के आधार पर याचिका खारिज कर दी थी, लेकिन छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने इस पर पुनर्विचार किया। उसने स्पष्ट रूप से कहा कि महिलाओं को संपत्ति से वंचित करना “रूढ़ियों के नाम पर” लिंग भेदभाव को और बढ़ावा देता है, जिसे कानून समाप्त करने का प्रयास करता है।
यह फैसला भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 15 (लैंगिक भेदभाव का निषेध) को एक नई प्रासंगिकता देता है, विशेषकर आदिवासी महिलाओं के संदर्भ में।

अनुसूचित क्षेत्र और परंपरागत कानून

भारत के अनुसूचित पाँचवी क्षेत्रीय राज्यों जैसे झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में विवाह, उत्तराधिकार और दत्तक ग्रहण जैसे मामलों में आदिवासी समुदाय अपने परंपरागत कानूनों से संचालित होते हैं। परंतु इन परंपराओं में महिलाओं को पुश्तैनी संपत्ति में कोई अधिकार नहीं दिया गया है।
2015-16 की कृषि जनगणना के अनुसार, केवल 16.7% ST महिलाओं के पास भूमि स्वामित्व है जबकि 83.3% पुरुषों के पास। आदिवासी समाज में भूमि को सामुदायिक संपत्ति माना जाता है, परंतु जब भूमि का मुआवज़ा मिलता है, तो वह समुदाय को नहीं बल्कि व्यक्तिगत लाभार्थियों को ही जाता है — जिससे सामुदायिक स्वामित्व का तर्क भी कमजोर हो जाता है।

“रिवायत” बनाम “संविधान”

किसी भी परंपरा को कानून के रूप में स्वीकार करने के लिए उसे “प्राचीनता”, “निरंतरता”, “निश्चितता”, “तर्कसंगतता” और “सार्वजनिक नीति के अनुरूपता” की कसौटी पर खरा उतरना आवश्यक होता है। यदि कोई समुदाय यह साबित नहीं कर सके कि महिलाओं को लगातार संपत्ति से वंचित रखा गया है, तो अदालतें इस परंपरा को खारिज कर सकती हैं।
झारखंड उच्च न्यायालय का 2022 का प्रभा मिंज बनाम मार्था एक्का मामला इस दिशा में एक और मील का पत्थर है, जिसमें ओरांव जनजाति की महिलाओं को संपत्ति में अधिकार दिया गया, क्योंकि प्रतिवादी यह सिद्ध नहीं कर पाए कि बेटियों को सदैव संपत्ति से वंचित रखा गया है।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • सुप्रीम कोर्ट ने रामचरण बनाम सुखराम (2025) मामले में आदिवासी महिलाओं को संपत्ति में बराबरी का अधिकार दिया।
  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2(2) आदिवासियों को इस अधिनियम के दायरे से बाहर रखती है।
  • 2015-16 कृषि जनगणना के अनुसार केवल 16.7% ST महिलाओं के पास भूमि स्वामित्व है।
  • झारखंड उच्च न्यायालय ने प्रभा मिंज बनाम मार्था एक्का (2022) मामले में महिलाओं को संपत्ति अधिकार देने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया।

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