आतंकवाद और नक्सलवाद: भविष्य की अनिश्चितताएं और वर्तमान की हकीकत

इतिहास के पन्नों में भविष्यवाणियों की सफलता का प्रतिशत सदैव कम रहा है। फिर भी नेता, विशेषज्ञ और रणनीतिकार समय-समय पर भविष्य की रूपरेखा खींचने का प्रयास करते हैं। आज के दौर में, जब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) जैसी तकनीकों ने भविष्य की अनिश्चितताओं को और गहरा कर दिया है, तब पूर्वानुमान लगाना और भी जोखिमपूर्ण बन गया है। आतंकवाद के वैश्विक खतरे और भारत में नक्सलवाद के घटते प्रभाव की तुलना वर्तमान सुरक्षा विमर्श का केंद्र बन चुकी है।

वैश्विक आतंकवाद की बदलती रणनीति

9/11 के पच्चीस वर्षों बाद भी आतंकवाद का खतरा समाप्त नहीं हुआ है। इस्लामिक स्टेट (IS) जैसे संगठनों ने ‘लोन वुल्फ’ हमलों और वाहन रैमिंग जैसी रणनीतियों को बढ़ावा दिया है। 2025 की शुरुआत में न्यू ऑर्लेन्स में हुआ हमला इसका हालिया उदाहरण है। आतंकवाद विशेषज्ञों का मानना है कि Jihadist संगठनों की गतिविधियाँ फिर से तीव्र हो रही हैं।
AI के आगमन ने इस खतरे को और गंभीर बना दिया है। अब चिंता है कि AI-सक्षम आतंकवादी ‘बायो वेपन्स’ तक पहुंच बना सकते हैं, जिससे व्यापक जनहानि संभव है। वहीं, AI के असंतुलित उपयोग से समाज में अनियंत्रित क्षति की आशंका भी बढ़ गई है।

भारत में नक्सलवाद की ढलती रेखा

इसके विपरीत, भारत में विचारधारा-आधारित उग्रवाद जैसे नक्सलवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से घट रहा है। केंद्रीय गृह मंत्री ने स्वयं संकेत दिया है कि 2026 तक नक्सलवाद पूरी तरह समाप्त हो सकता है। 1960 के दशक में जिस आंदोलन ने ‘स्प्रिंग थंडर ओवर इंडिया’ का सपना दिखाया था, वह अब इतिहास के पन्नों में सीमित होता जा रहा है।
शुरुआत में चारु मजूमदार, कानू सान्याल, और कोण्डापल्ली सीतारामैया जैसे नेताओं के नेतृत्व में यह आंदोलन एक सशक्त वैचारिक आंदोलन था, जिसने जनजातीय समुदायों और शहरी गरीबों में उम्मीद की किरण जगाई। लेकिन समय के साथ यह आंदोलन क्षेत्रीय विखंडन और विचारधारा से अधिक हिंसा की ओर मुड़ गया।

2024 से शुरू हुआ निर्णायक अभियान

2024 में शुरू हुए सरकार के अभियान ने इस आंदोलन को निर्णायक मोड़ पर ला खड़ा किया। सीपीआई (माओवादी) द्वारा जारी एक पुस्तिका के अनुसार, पिछले वर्ष अकेले 357 नक्सली मारे गए, जिनमें से एक-तिहाई महिलाएं थीं। हिंसा का केंद्र बिंदु दंडकारण्य क्षेत्र रहा—जिसमें बस्तर (छत्तीसगढ़), गढ़चिरौली (महाराष्ट्र) और ओडिशा व आंध्रप्रदेश के जंगल शामिल हैं।
यह लड़ाई अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ जैसी नहीं रही, जहां विचारधारा की जगह धार्मिक कट्टरता थी। भारत में नक्सली अक्सर ग्रामीण जनता के बीच रहते थे, जिससे केवल बल प्रयोग समाधान नहीं था। भारतीय नीति में अब तक संतुलन और संवेदनशीलता देखी गई है।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • नक्सल आंदोलन की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से हुई थी।
  • 2024-25 में सरकारी अभियान में 357 नक्सली मारे गए, जिनमें एक-तिहाई महिलाएं थीं।
  • दंडकारण्य क्षेत्र नक्सली हिंसा का प्रमुख केंद्र रहा है।
  • ‘स्प्रिंग थंडर ओवर इंडिया’ का नारा चीन और लैटिन अमेरिकी क्रांतियों से प्रेरित था।

‘शहरी नक्सल’ शब्द का भ्रम

आज ‘अर्बन नक्सल’ शब्द का व्यापक प्रयोग हो रहा है, परंतु इसका मूल नक्सल आंदोलन से कम ही लेना-देना है। वर्तमान में जिन्हें ‘अर्बन नक्सल’ कहा जा रहा है, वे अधिकतर सरकार की नीतियों के आलोचक बुद्धिजीवी हैं, न कि सशस्त्र क्रांतिकारी। इस शब्द का दुरुपयोग नीति निर्धारण को भ्रमित कर सकता है और इससे वास्तविक खतरे की पहचान कठिन हो जाती है।
भविष्य में आतंकवाद और नक्सलवाद दोनों के स्वरूप बदल सकते हैं। इसलिए नीति निर्माताओं को सतर्क रहना होगा कि वे न केवल प्रत्यक्ष खतरे को पहचानें, बल्कि भविष्य की अनिश्चितताओं को भी समझें। AI और वैश्विक नेटवर्किंग जैसे कारकों ने इन खतरों को बहुआयामी बना दिया है। समय की मांग है कि हम न केवल सख्त रणनीति अपनाएं, बल्कि गहन समझ और विवेक से काम लें—ताकि सुरक्षा भी बनी रहे और लोकतंत्र की आत्मा भी।

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