अलास्का शिखर सम्मेलन के बाद भारत-अमेरिका संबंधों पर प्रभाव: आत्मनिर्भर और संतुलित विदेश नीति की ज़रूरत

15 अगस्त, 2025 को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच हुए “अलास्का मोमेंट” को यूक्रेन संघर्ष की दिशा में कूटनीतिक समाधान के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि, भारत के लिए यह बहुप्रतीक्षित शिखर वार्ता न ही कोई स्पष्ट राहत लेकर आई, न ही उसकी रणनीतिक चिंताओं को कम कर सकी। उलटे, भारत पर अमेरिका की द्वितीयक प्रतिबंध नीति और दबाव और अधिक तीव्र होते दिखाई दिए।

भारत की उम्मीदें और अलास्का सम्मेलन की निराशा

भारत सरकार को आशा थी कि अमेरिका-रूस के बीच बढ़ती निकटता से अमेरिका का भारत पर तेल आयात को लेकर दबाव कम होगा। विशेष रूप से—

  • 25% द्वितीयक प्रतिबंध जो भारत पर रूसी तेल खरीदने को लेकर लगाए गए हैं।
  • भारत-अमेरिका व्यापार वार्ता की बहाली, जो रूसी तेल को लेकर रुकी हुई है।
  • परस्पर शुल्कों में ढील, जिससे भारतीय निर्यातकों पर बोझ कम हो सके।

हालांकि, व्हाइट हाउस के वरिष्ठ सलाहकार पीटर नवारो के तीखे लेख से स्पष्ट हो गया कि यह प्रतिबंध अमेरिका की “दोहरी मार नीति” का हिस्सा हैं — जो भारत को रूस के साथ व्यापार और अमेरिकी बाजार तक सीमित पहुंच दोनों के लिए दंडित करते हैं।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • अलास्का सम्मेलन का उद्देश्य यूक्रेन युद्ध को कूटनीतिक समाधान की दिशा में आगे बढ़ाना था, लेकिन इससे भारत को कोई व्यावहारिक लाभ नहीं मिला।
  • अमेरिका ने रूस के साथ अपना व्यापार बढ़ाया है, जबकि भारत पर प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं, जो रणनीतिक संतुलन के सिद्धांत के विपरीत है।
  • राष्ट्रपति ट्रंप ने “ऑपरेशन सिंदूर” में भारत-पाक युद्धविराम का श्रेय स्वयं को दिया, जिससे भारत की आधिकारिक स्थिति को चुनौती मिली है।
  • भारत-अमेरिका व्यापार संबंधों में 25% परस्पर शुल्क और प्रतिबंधों की वजह से भारतीय उत्पाद प्रतिस्पर्धा में पिछड़ सकते हैं।

“शिखर राजनय” बनाम “वास्तविक कूटनीति”

मोदी सरकार की विदेश नीति लंबे समय से व्यक्तिगत नेतृत्व और शिखर मुलाकातों पर केंद्रित रही है, जहाँ फोटो अवसर और व्यक्तिगत मेल-मिलाप को सफलता का संकेत माना गया। लेकिन—

  • चीन के साथ 18 व्यक्तिगत मुलाकातों के बावजूद गलवान घाटी की झड़पें नहीं रोकी जा सकीं।
  • ट्रंप के साथ “Howdy Modi” (2019) और “Namaste Trump” (2020) जैसे आयोजनों के बाद भी आज संबंधों में कटुता आई है।

इसलिए अब ज़रूरत है कि शैली से हटकर सार पर ध्यान केंद्रित किया जाए, विशेषकर जब अमेरिकी विदेश नीति कुछ गिने-चुने सलाहकारों और स्वयं राष्ट्रपति पर केंद्रित हो।

संतुलित कूटनीति और रणनीतिक स्वायत्तता की आवश्यकता

  • भारत को केवल एक पक्षीय कूटनीति की बजाय द्विदलीय संबंधों पर काम करना चाहिए, ताकि अमेरिकी राजनीतिक सत्ता में बदलाव से संबंध प्रभावित न हों।
  • अमेरिका की मनमानी प्रतिबंध नीतियाँ भारत की संप्रभुता और रणनीतिक हितों के लिए खतरा बन सकती हैं। जैसे कि—

    • भारतीय उत्पादों पर प्रतिदान और दंडात्मक शुल्क,
    • अमेरिका में काम कर रहे भारतीयों पर रेमिटेंस टैक्स,
    • विनिर्माण पर रोक या सीमाएं।
  • 2018 में ईरानी तेल प्रतिबंध मानने की नीति के बाद, अब अमेरिका की रूसी तेल पर रोक लगाने की मांग को मानना भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को कमजोर करता है।

आगे की रणनीति

  • कूटनीतिक बहुपक्षीयता: मोदी की आगामी जापान, चीन (SCO), अमेरिका (UNGA), दक्षिण अफ्रीका (G20) यात्राएं इस दिशा में महत्वपूर्ण हो सकती हैं।
  • रूस से संबंध सुदृढ़ करना: पुतिन की प्रस्तावित भारत यात्रा पर ध्यान केंद्रित करना।
  • क्वाड शिखर सम्मेलन में अमेरिका की भागीदारी स्पष्ट नहीं है; इस पर भारत की नीति संतुलित होनी चाहिए।

भारत को अपनी रणनीतिक एजेंसी को पुनः प्राप्त करने के लिए अब कठोर रुख अपनाने की आवश्यकता है — जिसमें “अलास्का की हवाओं” पर निर्भरता नहीं, बल्कि सटीक, सिद्धांत आधारित और दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों पर केंद्रित नीति प्राथमिकता होनी चाहिए।

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