अनुच्छेद 143 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट से सलाह

भारत की राष्ट्रपति, श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने हाल ही में संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत भारत के सर्वोच्च न्यायालय से कुछ विधिक प्रश्नों पर राय मांगी है। यह घटना न केवल संवैधानिक प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण पहलू उजागर करती है, बल्कि भारत में संघीय ढांचे और न्यायिक सक्रियता की वर्तमान स्थिति को भी रेखांकित करती है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
सुप्रीम कोर्ट की सलाहकार क्षेत्राधिकार की व्यवस्था भारतीय संविधान के अनुच्छेद 143 में निहित है, जिसकी जड़ें ब्रिटिश शासन के Government of India Act, 1935 में मिलती हैं। उस समय गवर्नर जनरल को यह अधिकार प्राप्त था कि वह किसी भी सार्वजनिक महत्व के विधिक प्रश्न को संघीय न्यायालय के समक्ष राय के लिए भेज सके। यह व्यवस्था कनाडा के संविधान में भी मौजूद है, जहां सर्वोच्च न्यायालय केंद्र या प्रांतीय सरकारों द्वारा भेजे गए कानूनी प्रश्नों पर राय देता है। इसके विपरीत, अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय कार्यपालिका को कोई सलाह देने से परहेज करता है क्योंकि यह संविधान में निहित शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन मानता है।
अनुच्छेद 143 की संवैधानिक व्यवस्था
अनुच्छेद 143 के अनुसार, राष्ट्रपति किसी भी कानून या तथ्य के उस प्रश्न को, जो सार्वजनिक महत्व का हो, सर्वोच्च न्यायालय के पास राय के लिए भेज सकते हैं। यह सिफारिश राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद की सलाह पर की जाती है। संविधान का अनुच्छेद 145 यह प्रावधान करता है कि ऐसे किसी भी संदर्भ को सुप्रीम कोर्ट की कम से कम पाँच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुना जाएगा।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट की दी गई राय राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी नहीं होती और इसका न्यायिक दृष्टांत के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता, परंतु इसकी प्रभावशाली प्रासंगिकता होती है और आमतौर पर कार्यपालिका व न्यायपालिका दोनों इसका पालन करते हैं।
प्रमुख ऐतिहासिक संदर्भ
1950 से अब तक लगभग 15 बार राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी गई है। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण मामले इस प्रकार है:
- दिल्ली लॉ एक्ट केस (1951): ‘विनियमित विधायन’ की सीमाएं तय की गईं।
- केरल शिक्षा विधेयक (1958): मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों में समरसता का सिद्धांत स्थापित किया गया।
- बेरुबारी केस (1960): भारत की सीमाओं में परिवर्तन हेतु संविधान संशोधन की आवश्यकता पर राय दी गई।
- केशव सिंह केस (1965): विधायिका की शक्तियों और विशेषाधिकारों की व्याख्या की गई।
- राष्ट्रपति चुनाव केस (1974): चुनाव तब भी होने चाहिए जब राज्य विधानसभाएं भंग हो चुकी हों।
- स्पेशल कोर्ट्स बिल (1978): अदालत द्वारा संदर्भ को अस्वीकार करने, स्पष्ट प्रश्नों की आवश्यकता और संसद के कार्यों में अतिक्रमण से बचने की व्यवस्था स्पष्ट की गई।
- थर्ड जजेस केस (1998): उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों के लिए कॉलेजियम प्रणाली की रूपरेखा तय की गई।
उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने अब तक केवल एक बार – राम जन्मभूमि केस (1993) – में राय देने से इंकार किया है।
वर्तमान संदर्भ
वर्तमान में राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजा गया संदर्भ एक हालिया निर्णय से उत्पन्न हुआ है, जिसमें अदालत ने राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों और राष्ट्रपति की कार्यवाही की समय-सीमा निर्धारित की थी। साथ ही, यह कहा गया कि इनकी निर्णय प्रक्रिया न्यायिक समीक्षा के अधीन हो सकती है।
राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए इस संदर्भ में कुल 14 प्रश्न शामिल हैं, जिनका संबंध मुख्यतः अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या से है। सरकार ने यह प्रश्न उठाया है कि जब संविधान में समय-सीमा निर्दिष्ट नहीं है, तब क्या न्यायालय इसे निर्धारित कर सकता है। साथ ही, क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति की कार्यवाही विधेयक के कानून बनने से पहले ही न्यायिक समीक्षा के योग्य हो सकती है, यह भी एक प्रमुख प्रश्न है।
यह भी विचारणीय है कि इस संदर्भ का कारण केंद्र सरकार और विपक्ष-शासित राज्यों के बीच राजनीतिक मतभेदों से उत्पन्न संघर्ष है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में गृह मंत्रालय के कार्यालय ज्ञापन में उल्लिखित समय-सीमा को अपनाया था, जिसने इस विवाद को जन्म दिया।