UNEP अनुकूलन अंतराल रिपोर्ट 2025: जलवायु संकट से निपटने के लिए वैश्विक सहयोग की पुकार

UNEP अनुकूलन अंतराल रिपोर्ट 2025: जलवायु संकट से निपटने के लिए वैश्विक सहयोग की पुकार

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की अनुकूलन अंतराल रिपोर्ट 2025 ने एक गंभीर चेतावनी दी है — जलवायु परिवर्तन के तीव्र होते प्रभावों के बीच वैश्विक स्तर पर अनुकूलन (adaptation) के लिए वित्तीय संसाधनों की भारी कमी लगातार बनी हुई है। रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया है कि दुनिया भर में गरीब और जलवायु-संवेदनशील देशों को बचाने के लिए जितना धन आवश्यक है और जितना वास्तव में उपलब्ध कराया जा रहा है, उसके बीच की खाई खतरनाक रूप से बढ़ती जा रही है।

जलवायु अनुकूलन की बढ़ती वित्तीय मांग

रिपोर्ट के अनुसार, विकासशील देशों को वर्ष 2035 तक हर साल 310 से 365 अरब अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी, जबकि महंगाई को ध्यान में रखते हुए यह आंकड़ा 440–520 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है। बढ़ते चक्रवात, बाढ़, गर्मी की लहरें और धीरे-धीरे बढ़ते प्रभाव जैसे सूखा, रेगिस्तानीकरण और समुद्र-स्तर में वृद्धि, इन लागतों को निरंतर बढ़ा रहे हैं। शहरीकरण, पारिस्थितिक क्षरण और सामाजिक सुरक्षा प्रणाली की बढ़ती आवश्यकता जैसे कारण इस लागत को और जटिल बना रहे हैं।

अनुकूलन वित्त पोषण में भीषण कमी

2023 में अंतरराष्ट्रीय सार्वजनिक अनुकूलन वित्त मात्र 26 अरब डॉलर रहा, जिससे हर वर्ष 284–339 अरब डॉलर की भारी कमी सामने आती है। 2021 के ग्लासगो जलवायु संधि के तहत 2025 तक अनुकूलन वित्त को 40 अरब डॉलर तक दोगुना करने का लक्ष्य तय किया गया था, जिसे UNEP ने अब असंभव माना है। वहीं, 2035 तक 300 अरब डॉलर प्रति वर्ष की New Collective Quantified Goal (NCQG) भी अपर्याप्त मानी जा रही है क्योंकि इसमें मुद्रास्फीति का समुचित समायोजन नहीं है।

जलवायु वित्त के स्रोत और चुनौतियाँ

हालांकि 2024 में Adaptation Fund, Global Environment Facility (GEF), और Green Climate Fund (GCF) जैसे अंतरराष्ट्रीय तंत्रों से कुल 920 मिलियन डॉलर का योगदान मिला, जो 2019–23 औसत से 86% अधिक था, परन्तु UNEP ने इसे अस्थायी बताया है। दाता देशों में राजकोषीय दबाव और घरेलू प्राथमिकताओं के कारण दीर्घकालिक वित्तपोषण अस्थिर बना हुआ है।

असमान बोझ और धीमी प्रगति

रिपोर्ट बताती है कि विकासशील देश अनुकूलन लागत का बड़ा हिस्सा स्वयं वहन कर रहे हैं, जिनमें से 58% वित्त ऋण के रूप में आता है — जिनमें से अधिकांश गैर-रियायती होते हैं। इससे ऋण बोझ बढ़ता है और जलवायु न्याय के सिद्धांत पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है। रिपोर्ट के अनुसार, अब तक 197 में से 172 देशों ने राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाएँ (NAPs) बनाई हैं, लेकिन उनमें से 36 योजनाएँ पुरानी हो चुकी हैं। छोटे द्वीपीय विकासशील देश (SIDS) सीमित संसाधनों के बावजूद नीति-स्तर पर अग्रणी हैं।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • UNEP की रिपोर्ट 2025 में प्रकाशित हुई और वैश्विक जलवायु अनुकूलन के वित्तीय अंतर को रेखांकित करती है।
  • 2023 में सार्वजनिक अनुकूलन वित्त $26 अरब था; वार्षिक आवश्यकता $310–365 अरब है।
  • 2025 तक $40 अरब का लक्ष्य ग्लासगो जलवायु संधि (2021) में निर्धारित किया गया था।
  • Baku to Belém रोडमैप के तहत 2035 तक $1.3 ट्रिलियन प्रतिवर्ष का वैश्विक जलवायु वित्त लक्ष्य रखा गया है।

UNEP की प्रमुख सिफारिशें

  1. Baku to Belém रोडमैप: COP29 के तहत अपनाया गया यह रोडमैप 2035 तक विकासशील देशों के लिए $1.3 ट्रिलियन वार्षिक जलवायु वित्त लक्ष्य प्रस्तावित करता है।
  2. निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाना: निजी निवेश वर्तमान में केवल $5 अरब वार्षिक है, जिसे नीतिगत सुधार और ब्लेंडेड फाइनेंस के ज़रिए $50 अरब तक बढ़ाया जा सकता है।
  3. ऋण-मुक्त साधनों को प्राथमिकता: अनुदान और रियायती ऋण जैसे साधनों को प्राथमिकता दी जाए ताकि गरीब देशों पर नया ऋण बोझ न बढ़े।
  4. वित्तीय प्रणालियों में लचीलापन एकीकृत करना: बैंकों, निवेशकों और बीमा कंपनियों को अपने निर्णयों में जलवायु जोखिम का आकलन शामिल करना चाहिए।
  5. शमन (Mitigation) को मज़बूत करना: उत्सर्जन में कटौती से भविष्य के जलवायु प्रभाव घट सकते हैं, जिससे अनुकूलन की लागत भी कम होगी।

भारत का दृष्टिकोण और रणनीति

भारत ने जलवायु रणनीति में अनुकूलन को प्रमुखता दी है — विशेषकर कृषि, जल प्रबंधन और आपदा तैयारी में। राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कोष (NAFCC) सामुदायिक परियोजनाओं के लिए संसाधन जुटा रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण 2024–25 में ‘विकसित भारत 2047’ के दृष्टिकोण में अनुकूलन को सतत विकास की आधारशिला माना गया है।
भारत ‘साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियाँ’ (CBDR-RC) सिद्धांत को मानता है और विकास को डीकार्बोनाइज़ेशन से पूर्वता देता है। अमेरिका द्वारा पेरिस समझौते से 2025 में हटने और ‘Loss and Damage Fund’ में देरी के चलते भारत ने 2035 के लिए अपनी राष्ट्रीय रूप से निर्धारित प्रतिबद्धताएँ (NDCs) स्थगित कर दी हैं, जिससे वह समुचित अंतरराष्ट्रीय वित्त की मांग को प्रमुखता दे रहा है।

Originally written on November 1, 2025 and last modified on November 1, 2025.

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