2047 से पहले भारत को चाहिए नया आर्थिक मॉडल: ऊंची विकास दर के बावजूद गहराता असंतोष
भारत की अर्थव्यवस्था आज तेज़ी से बढ़ रही है — 2025 के मध्य में GDP वृद्धि दर 8% से ऊपर है और भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। लेकिन इन प्रभावशाली आंकड़ों के पीछे एक गहरी असहजता छिपी हुई है: नौकरियाँ नहीं हैं, असमानता स्थायी हो चुकी है, शहर दम घोंट रहे हैं, और गांव खाली हो रहे हैं। सरकार का खर्च रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करने में बढ़ रहा है, जबकि क्षमता निर्माण पर ध्यान कम हो रहा है। सवाल यह है कि क्या अब भारत को एक नया आर्थिक मॉडल अपनाने की जरूरत है?
1991 मॉडल की उपलब्धियाँ और सीमाएँ
1991 के आर्थिक संकट के बाद अपनाई गई उदारीकरण नीति ने भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था से जोड़ा। गरीबी घटी, उपभोग बढ़ा, और एक नया मध्यम वर्ग उभरा। लेकिन आज की स्थिति एक चेतावनी देती है — जैसे 1980 के दशक में विकास दर बढ़ने के बावजूद 1991 में भुगतान संतुलन का संकट आया था, वैसे ही अब भी तेज़ विकास दर संरचनात्मक कमजोरियों को ढक रही है।
रोजगार संकट: मौजूदा मॉडल की सबसे बड़ी असफलता
भारत हर साल लाखों स्नातक तैयार कर रहा है, लेकिन उचित नौकरियों की कमी है। एक ही सरकारी पद के लिए हजारों उच्च-शिक्षित उम्मीदवार आवेदन करते हैं। काम कर रहे लोग भी अक्सर न्यूनतम जीवन-योग्य वेतन नहीं कमा पाते। यही कारण है कि तेज़ विकास के बावजूद 80 करोड़ से अधिक लोग आज भी राशन सब्सिडी पर निर्भर हैं। आर्थिक समृद्धि के साथ सब्सिडी पर निर्भरता कम होनी चाहिए थी, लेकिन इसके उलट यह बढ़ी है।
कृषि पर निर्भरता और ग्रामीण संकट
भारत की लगभग 60% आबादी गांवों में रहती है, लेकिन कृषि का GDP में योगदान 20% से कम है। यह असंतुलन सरकार को अनुदानों और राहत योजनाओं पर निर्भर करता है, जिससे स्वास्थ्य, शिक्षा और नवाचार जैसे क्षेत्रों के लिए संसाधन कम पड़ते हैं। पंजाब, हरियाणा और गुजरात जैसे राज्यों में युवा अवैध तरीकों से विदेश जाने के लिए जमीन तक बेच रहे हैं। गांव खाली हो रहे हैं और “भूतिया गांव” उभर रहे हैं।
शहरीकरण: भीड़, प्रदूषण और अव्यवस्था
जो लोग शहरों में आते हैं, उन्हें भी राहत नहीं मिलती। भारत के शीर्ष 10 शहरों में 10% आबादी रहती है, लेकिन वे 25% GDP उत्पन्न करते हैं। यही शहर अब वायु प्रदूषण, जल संकट, यातायात जाम और अपर्याप्त नागरिक सुविधाओं से जूझ रहे हैं। दिल्ली और अन्य शहरों की सर्दी की धुंध अब एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल बन चुकी है। विकास की यह केंद्रीयकृत दिशा जीवन की गुणवत्ता को गिरा रही है।
तकनीक में भागीदारी, लेकिन नेतृत्व नहीं
भारत ने सॉफ्टवेयर और फार्मा क्षेत्रों में वैश्विक पहचान बनाई है। कोविड-19 के दौरान सीरम इंस्टीट्यूट ने वैक्सीन की आपूर्ति की, लेकिन प्रमुख तकनीक विदेश से आयातित रही। AI, EV, जीन एडिटिंग जैसे क्षेत्रों में भारत नेतृत्व की भूमिका में नहीं है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में भागीदारी से ज़्यादा ज़रूरी है — नेतृत्व करना।
वैश्विक महत्वाकांक्षा, लेकिन सीमित मौद्रिक शक्ति
भारत की वैश्विक आकांक्षाएं उसकी आर्थिक संरचना से मेल नहीं खा रहीं। रुपया आज भी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा नहीं बन पाया है। 2006 की तारापोर समिति की सिफारिशें कभी लागू नहीं हुईं। सब्सिडी आधारित, खपत-प्रधान और आयात-निर्भर मॉडल के चलते अंतरराष्ट्रीय वित्तीय शक्ति हासिल करना मुश्किल हो गया है।
टुकड़ों में सुधार अब पर्याप्त नहीं
तीन दशकों से अधिक समय बाद, 1991 मॉडल की सीमाएँ अब संरचनात्मक हो चुकी हैं। रोजगारविहीन विकास, ग्रामीण ठहराव, शहरी भीड़, तकनीकी पर निर्भरता, और राजकोषीय तनाव — ये सब उसी ढांचे के स्वाभाविक परिणाम हैं। अब केवल सब्सिडी समायोजन या प्रोत्साहन देने से समाधान नहीं होगा। ज़रूरत है विकास की पूर्ण पुनरकल्पना की।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- 1991 के आर्थिक सुधारों ने बैलेंस ऑफ पेमेंट्स संकट के बाद भारत को वैश्वीकरण की दिशा में अग्रसर किया।
- भारत की GDP विकास दर 2025 में 8% से अधिक दर्ज की गई है।
- लगभग 60% भारतीय गांवों में रहते हैं, लेकिन कृषि का GDP योगदान मात्र 15–20% है।
- भारत में 80 करोड़ से अधिक लोग आज भी खाद्यान्न सब्सिडी पर निर्भर हैं।
2047 से पहले बदलाव की आवश्यकता
स्वतंत्रता के 100 वर्ष पूरे होने से पहले भारत के पास एक रणनीतिक अवसर है — ऐसा आर्थिक मॉडल तैयार करने का जो तेज़ विकास के साथ-साथ रोजगार सृजन, ग्रामीण पुनर्जीवन, शहरी संतुलन, और तकनीकी नेतृत्व सुनिश्चित करे। यह काम केवल सरकार का नहीं है। विश्वविद्यालयों, उद्योगों, विचार संस्थानों और नागरिक समाज को मिलकर यह तय करना होगा कि भारत कैसी अर्थव्यवस्था बनना चाहता है — और किसके लिए।
अब सवाल यह नहीं है कि भारत तेजी से विकास कर सकता है या नहीं, बल्कि यह है कि क्या यह विकास मानवता-सम्मत, टिकाऊ और 2047 की महत्वाकांक्षाओं के योग्य होगा या नहीं।