सुप्रीम कोर्ट का 5 मई आदेश: न्यायिक आत्मसंवर्धन बनाम संवैधानिक संतुलन

सुप्रीम कोर्ट द्वारा 5 मई 2025 को विशाल तिवारी बनाम भारत संघ मामले में दिया गया आदेश, पहली दृष्टि में न्यायिक संयम का उदाहरण प्रतीत होता है। भाजपा सांसद निशिकांत दुबे द्वारा कोर्ट पर “गृहयुद्ध भड़काने” और “धार्मिक युद्ध भड़काने” जैसे आरोप लगाने के बावजूद, कोर्ट ने अवमानना की कार्यवाही करने से इनकार कर दिया। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार ने इन टिप्पणियों को “मूर्खतापूर्ण और अत्यंत गैर-जिम्मेदाराना” बताते हुए कहा, “न्यायालय कोई कोमल पुष्प नहीं है जो ऐसी टिप्पणियों से मुरझा जाए।”

परिपक्वता के पीछे अधिकार का पुनः उद्घोष

हालाँकि कोर्ट ने संयम दिखाया, लेकिन इसी अवसर का उपयोग करते हुए उसने न्यायिक समीक्षा की अवधारणा को न केवल दोहराया, बल्कि उसे सर्वोपरि और असीमित बताया। कोर्ट ने कहा, “संविधान हम सभी से ऊपर है, और सभी राज्य संस्थाएँ इसकी सीमा में कार्य करती हैं।” साथ ही, न्यायिक समीक्षा को नकारना संविधान को ही नकारने के बराबर बताया गया।
यह विचार न्यायिक समीक्षा की अब तक की स्वीकृत परिभाषा से आगे जाकर न्यायपालिका को संविधान की व्याख्या का अंतिम और सर्वोच्च संरक्षक बना देता है — वह भी बिना किसी बाहरी संस्थागत नियंत्रण के।

न्यायिक समीक्षा: अधिकार या एकाधिकार?

भारत की संवैधानिक परंपरा, विशेष रूप से केशवानंद भारती फैसले के बाद, यह मानती रही है कि संसद के अधिकार की भी सीमाएँ हैं — बेसिक स्ट्रक्चर सिद्धांत के अंतर्गत। लेकिन समय के साथ इस सिद्धांत के विस्तार ने न्यायपालिका को केवल निगरानीकर्ता नहीं, बल्कि सीमाओं को परिभाषित करने वाला अंतिम निर्णायक बना दिया है।
अब संसद कानून बना सकती है, लेकिन वह हर समय न्यायिक समीक्षा की तलवार के नीचे रहती है। संविधान संशोधन भी कोर्ट की समीक्षा से परे नहीं हैं। इस व्यवस्था में न्यायपालिका निर्णायक भी है और निर्णायक मान्यता का स्रोत भी — एक तरह से खेल का अंपायर और स्कोरकीपर दोनों।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • सुप्रीम कोर्ट ने 5 मई 2025 को विशाल तिवारी बनाम भारत संघ मामले में भाजपा सांसद पर अवमानना की कार्यवाही से इनकार किया।
  • कोर्ट ने न्यायिक समीक्षा को “संविधान का अनिवार्य तत्व” बताते हुए इसे असीमित घोषित किया।
  • बेसिक स्ट्रक्चर सिद्धांत के तहत संविधान संशोधन भी न्यायिक समीक्षा के अधीन होते हैं।
  • अदालत ने कहा: “संविधान को नकारना, न्यायिक समीक्षा को नकारने के बराबर है।”

जवाबदेही बनाम पारदर्शिता

कोर्ट ने अपनी जवाबदेही को “खुले न्यायालय में सुनवाई, तर्कसंगत निर्णय और अपील की प्रक्रिया” से जोड़ा। लेकिन ये सभी व्यवस्थाएँ न्यायपालिका के आंतरिक तंत्र का हिस्सा हैं। यह एक संस्थागत पारदर्शिता है, परंतु बहस योग्य जवाबदेही नहीं।
जब संसद का अधिनियम न्यायिक समीक्षा के अधीन होता है, और कार्यपालिका का आदेश अदालत द्वारा खारिज किया जा सकता है, तो क्या सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक व्याख्या को चुनौती देने की कोई प्रभावी प्रणाली मौजूद है? मौजूदा व्यवस्था में इसका एकमात्र उपाय — संविधान संशोधन — भी न्यायिक समीक्षा के अधीन है।

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