सर्वोच्च न्यायालय का फैसला: ट्रिब्यूनल सुधार अधिनियम 2021 के प्रावधान असंवैधानिक घोषित
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रिब्यूनल सुधार अधिनियम, 2021 के कई प्रमुख प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। अदालत ने कहा कि यह कानून उन प्रावधानों को दोबारा लागू करने का प्रयास था जिन्हें पहले ही न्यायपालिका ने रद्द कर दिया था। यह फैसला भारत की ट्रिब्यूनल प्रणाली की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और स्वायत्तता की संवैधानिक गारंटियों को और मजबूत करता है।
कार्यपालिका के नियंत्रण को न्यायालय ने किया अस्वीकार
मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ (या वर्तमान प्रधान न्यायाधीश बी. आर. गवई के नेतृत्व वाली पीठ) ने यह स्पष्ट किया कि 2021 का अधिनियम कार्यपालिका को अत्यधिक नियंत्रण देता था विशेषकर नियुक्तियों, कार्यकाल और सेवा शर्तों के मामलों में। न्यायालय ने कहा कि यह नियंत्रण न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत के विपरीत है और शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) तथा निष्पक्ष न्याय की संवैधानिक अवधारणा का उल्लंघन करता है।
राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल आयोग के गठन का निर्देश
न्यायालय ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह चार महीनों के भीतर “राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल आयोग (National Tribunal Commission)” की स्थापना करे। यह आयोग देशभर के ट्रिब्यूनलों की नियुक्ति प्रक्रिया, प्रशासनिक निगरानी और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए एक स्थायी ढांचा तैयार करेगा। न्यायालय के अनुसार, यह संस्था ट्रिब्यूनलों की दीर्घकालिक स्वतंत्रता और समानता के लिए अत्यावश्यक है।
संसद को न्यायिक फैसलों से ऊपर नहीं रखा जा सकता
फैसले में कहा गया कि 2021 का अधिनियम मूलतः उसी अध्यादेश (Ordinance) का “पुनः पैकेज किया गया रूप” था, जिसे पहले ही असंवैधानिक ठहराया जा चुका था। अदालत ने दोहराया कि न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) संविधान की मूल विशेषता है और संसद या कार्यपालिका किसी भी न्यायिक निर्देश को निष्प्रभावी नहीं कर सकती।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रिब्यूनल सुधार अधिनियम, 2021 के कई प्रावधान रद्द किए।
- केंद्र सरकार को चार महीनों के भीतर “राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल आयोग” बनाना होगा।
- अधिनियम को पहले निरस्त किए गए 2021 के अध्यादेश का पुनः रूप बताया गया।
- प्रमुख मुद्दे थे नियुक्ति, कार्यकाल और सेवा शर्तों पर कार्यपालिका का नियंत्रण।
ट्रिब्यूनलों की स्वतंत्रता पर उठे सवाल
यह मामला मद्रास बार एसोसिएशन सहित कई याचिकाओं के माध्यम से सामने आया था। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि यह अधिनियम न्यायिक स्वायत्तता को कमजोर करता है। न्यायालय ने माना कि आयु सीमा, योग्यता और कार्यकाल से जुड़ी व्यवस्थाएँ पहले ही संविधान पीठ द्वारा तय की जा चुकी हैं, और उन्हें बार-बार बदलना संवैधानिक स्थिरता के खिलाफ है।