राष्ट्रपति संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई: संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या पर बड़ा सवाल

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रपति संदर्भ पर सुनवाई चल रही है, जिसे मई 2025 में दायर किया गया था। इस संदर्भ में कुल 14 प्रश्नों पर न्यायालय की राय मांगी गई है, जिनमें मुख्य रूप से संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या शामिल है। यह मुद्दा संघवाद और राज्यपालों की भूमिका को लेकर चल रही बहस के केंद्र में है, और इसका सीधा संबंध राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर समयबद्ध निर्णय लेने की आवश्यकता से है।

सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल 2025 के निर्णय की पृष्ठभूमि

यह राष्ट्रपति संदर्भ अप्रैल 2025 में दिए गए एक सुप्रीम कोर्ट के निर्णय — तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल एवं अन्य — के प्रतिफलस्वरूप आया है। इस निर्णय में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक को अस्वीकृत करते हैं या राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखते हैं, तो यह कार्य राज्य मंत्री परिषद की सलाह के अनुरूप और तीन माह की अवधि के भीतर होना चाहिए। यदि कोई विधेयक पुनः पारित होता है, तो राज्यपाल को उस पर अनिवार्य रूप से स्वीकृति देनी होगी। राष्ट्रपति के समक्ष रखे गए विधेयकों पर निर्णय की अवधि भी अधिकतम तीन माह तय की गई थी।
इस फैसले में न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा निर्णय में अनुचित देरी की जाती है, तो वह न्यायिक समीक्षा के अधीन होगी। केंद्र सरकार ने इस पर आपत्ति जताई है कि संविधान में समयसीमा स्पष्ट रूप से नहीं दी गई है, फिर भी न्यायालय ने अपनी ओर से समयसीमा निर्धारित कर दी।

अनुच्छेद 200 और 201 का संवैधानिक विश्लेषण

संविधान का अनुच्छेद 200 राज्यपाल को निम्नलिखित चार विकल्प देता है:

  • विधेयक को स्वीकृति देना,
  • स्वीकृति देने से इंकार करना,
  • पुनर्विचार हेतु लौटाना,
  • राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना।

राज्यपाल इन निर्णयों को अपनी व्यक्तिगत इच्छा से नहीं, बल्कि राज्य मंत्री परिषद की सलाह के अनुसार लेते हैं — यह शमशेर सिंह बनाम भारत सरकार (1974) मामले में भी स्पष्ट किया गया था। केवल अपवादस्वरूप, यदि कोई विधेयक संविधान का उल्लंघन करता हो, तब ही राज्यपाल अपने विवेकाधिकार का प्रयोग कर सकते हैं।
अनुच्छेद 201 के अनुसार, यदि कोई विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित किया गया हो, तो संविधान में उसके निर्णय के लिए कोई स्पष्ट समयसीमा निर्धारित नहीं है।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • शमशेर सिंह मामला (1974): इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल को अधिकांश मामलों में मंत्री परिषद की सलाह माननी होती है।
  • सरकारिया आयोग (1987): आयोग ने सुझाव दिया कि राष्ट्रपति द्वारा विचाराधीन विधेयकों पर अधिकतम छह माह में निर्णय लिया जाना चाहिए।
  • पंची आयोग (2010): इसने अनुशंसा की कि राज्यपाल विधेयकों पर अधिकतम छह माह के भीतर निर्णय लें।
  • नबाम रेबिया मामला (2006): इसमें न्यायालय ने राज्यपाल के विवेकाधिकार की सीमाओं को स्पष्ट किया था।

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