भूकंप से कांपा नूरिस्तान: अफगानिस्तान के इस ‘प्रकाश की भूमि’ का सांस्कृतिक इतिहास

31 अगस्त 2025 की रात, अफगानिस्तान के उत्तर-पूर्वी हिस्से में आए 6 तीव्रता के भूकंप ने नंगरहार और कुनर प्रांतों में भारी तबाही मचाई। कम से कम 800 लोग मारे गए और हजारों घायल हुए। लेकिन इस त्रासदी के बीच, कुनर और उसके पड़ोसी प्रांत नूरिस्तान का भूगोल और इतिहास फिर से चर्चा में आ गया है — एक ऐसा क्षेत्र जो न केवल अफगानिस्तान की सबसे बड़ी जातीय समूह, पश्तूनों, की भूमि है, बल्कि एक विलक्षण सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का भी गवाह रहा है।

कुनर घाटी: संघर्ष और रहस्य की भूमि

कुनर प्रांत, जो अफगानिस्तान के ‘पश्तून क्रेसेंट’ का पूर्वी सिरा है, घने जंगलों और ऊँचे पहाड़ों से ढका हुआ है। यह क्षेत्र कुनर नदी के किनारे बसा है, जो पाकिस्तान के चितराल से निकलकर जलालाबाद के पास काबुल नदी में मिलती है। इतिहासकार ब्रायन ग्रीन विलियम्स के अनुसार, अमेरिकी सैनिकों ने इसे अफगानिस्तान का ‘हार्ट ऑफ डार्कनेस’ कहा था — न केवल इसके दुर्गम भूगोल के कारण, बल्कि यहां के निवासियों की लम्बी गुरिल्ला युद्ध परंपरा के कारण भी, जो सिकंदर महान के समय से चली आ रही है।

नूरिस्तान: ‘काफिरिस्तान’ से ‘प्रकाश की भूमि’ तक

कुनर से सटे नूरिस्तान प्रांत का नाम पहले ‘काफिरिस्तान’ था — यानी ‘अविश्वासियों की भूमि’। 1890 के दशक तक, यहाँ के लोग इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करते थे और अपनी पारंपरिक, पूर्व-इस्लामी धार्मिक परंपराओं का पालन करते थे। इनके रंग-बिरंगे वस्त्रों के आधार पर इन्हें ‘सियाह पोश’ (काले वस्त्रधारी), ‘सफेद पोश’ (सफेद वस्त्रधारी) और ‘लाल पोश’ कहा जाता था। बाद में, अफगान शासक अब्दुर रहमान खान ने इन क्षेत्रों पर आक्रमण कर जबरन इस्लामीकरण किया और इस क्षेत्र का नाम ‘नूरिस्तान’ रखा गया।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • कुनर नदी 480 किलोमीटर लंबी है और यह चितराल से निकलकर काबुल नदी में मिलती है।
  • नूरिस्तान पहले ‘काफिरिस्तान’ कहलाता था और 1890 के दशक में इसका जबरन इस्लामीकरण किया गया।
  • कालाश और नूरिस्तानी समुदायों की धार्मिक परंपराएं ऋग्वैदिक धर्म से मिलती-जुलती हैं।
  • ब्रायन ग्रीन विलियम्स की 2008 की पुस्तक में कुनर को ‘Heart of Darkness’ कहा गया है।

वैदिक और मध्य एशियाई प्रभावों का संगम

प्रसिद्ध वैदिक विद्वान माइकल विट्ज़ल के अनुसार, नूरिस्तानी और कालाश समुदाय, जिनकी भाषाएँ इंडो-ईरानी परिवार की तीसरी शाखा से जुड़ी हैं, ऋग्वेदिक धार्मिक परंपराओं की जीवित झलकियाँ प्रदान करते हैं। बकरी की बलि, शमनों की भूमिका, गोलाकार ढोल, और पहाड़ी परियों (अप्सरा) की मान्यताएं — ये सभी हिंदूकुश क्षेत्र की एक साझा सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं।
कालाश समुदाय, जो आज भी पाकिस्तान के चितराल में तीन घाटियों में अपने गैर-इस्लामी धर्म का पालन करता है, और नूरिस्तानी — दोनों की धार्मिक संरचनाएं और सामाजिक परंपराएं हिंदू, बौद्ध, तथा जर्मन लोककथाओं से समानताएं रखती हैं। यह क्षेत्र कभी भारत, मध्य एशिया और फारस के बीच एक जीवंत सांस्कृतिक मार्ग था।

ब्रिटिश भूमिका और सांस्कृतिक त्रासदी

1893 की ड्यूरंड रेखा संधि और 1895 के गुप्त पूरक समझौते के चलते जब अब्दुर रहमान खान ने काफिरिस्तान पर आक्रमण किया, तो ब्रिटिश साम्राज्य ने चुप्पी साध ली। उनके पास केवल तीर-धनुष थे, जबकि आक्रमणकारी आधुनिक हथियारों से लैस थे। ब्रिटिश अफसर नेविल बाउल्स चेम्बरलेन ने 1896 में लिखा कि काफिरों को यदि समय रहते समर्थन मिला होता, तो उनकी त्रासदी को कुछ हद तक रोका जा सकता था।

निष्कर्ष: सांस्कृतिक संगम का विस्मृत अध्याय

आज नूरिस्तान के लोग मुख्यतः मुस्लिम हैं, लेकिन उनका अतीत — धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक दृष्टि से — एक अद्भुत खिड़की खोलता है, जहां भारत, मध्य एशिया और यूरोप के सांस्कृतिक तंतु एक-दूसरे से जुड़ते हैं। 2025 का यह भूकंप हमें इस क्षेत्र के मानवशास्त्रीय महत्व की याद दिलाता है — कि इतिहास सिर्फ युद्ध और आपदा नहीं, बल्कि विचारों, परंपराओं और आस्थाओं का भी दर्पण है, जिसे समझना और संरक्षित करना समय की माँग है।

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