भारत में दुर्लभ पृथ्वी तत्वों की भरपूर मौजूदगी, मगर उत्पादन में पिछड़ापन
भारत दुनिया में दुर्लभ पृथ्वी तत्वों (Rare Earth Elements – REEs) के तीसरे सबसे बड़े भंडार वाला देश है, लेकिन वैश्विक उत्पादन में उसकी हिस्सेदारी अत्यंत सीमित है। हालिया रिपोर्टों ने इस विरोधाभास को उजागर करते हुए भारत की खनन एवं प्रसंस्करण प्रणाली में संरचनात्मक और नियामकीय बाधाओं की ओर इशारा किया है।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत की स्थिति
Amicus Growth द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत के पास लगभग 6.9 मिलियन टन दुर्लभ पृथ्वी ऑक्साइड का भंडार है, जो उसे चीन (44 मिलियन टन) और ब्राजील (21 मिलियन टन) के बाद तीसरे स्थान पर रखता है। अन्य प्रमुख भंडार धारक देशों में ऑस्ट्रेलिया, रूस, वियतनाम और अमेरिका शामिल हैं। वैश्विक भंडार में 6–7% हिस्सेदारी होने के बावजूद, भारत की वैश्विक आपूर्ति में भागीदारी नगण्य है।
2024 में भारत ने केवल 2,900 टन दुर्लभ पृथ्वी तत्वों का उत्पादन किया, जबकि चीन ने 270,000 टन का आंकड़ा छू लिया। अमेरिका ने 45,000 टन, म्यांमार ने 31,000 टन और ऑस्ट्रेलिया, थाईलैंड तथा नाइजीरिया ने लगभग 13,000 टन प्रत्येक का उत्पादन किया। भारत का हिस्सा वैश्विक उत्पादन का केवल 1% से भी कम रहा।
नियामकीय और भूगर्भीय चुनौतियाँ
भारत में दुर्लभ पृथ्वी तत्वों के प्रमुख स्रोत मोनाजाइट रेत (Monazite Sands) हैं, जो थोरियम नामक रेडियोधर्मी तत्व के साथ पाई जाती हैं। इससे इनके खनन और प्रसंस्करण में तकनीकी जटिलता और कड़े नियामकीय नियंत्रण की आवश्यकता उत्पन्न होती है। ऐतिहासिक रूप से, भारत में इस क्षेत्र में खनन भारतीय दुर्लभ पृथ्वी लिमिटेड (IREL) जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा सीमित स्तर पर किया गया, जिसमें REEs को मुख्यतः गौण उत्पाद के रूप में देखा गया, न कि एक रणनीतिक संसाधन के रूप में।
प्रसंस्करण क्षमता और रणनीतिक महत्व
भारत की सबसे बड़ी कमजोरी उसके सीमित प्रसंस्करण और परिशोधन (refining) ढांचे में है। चीन न केवल उत्पादन में अग्रणी है, बल्कि परिशोधन क्षमता में भी लगभग 90% वैश्विक नियंत्रण रखता है — विशेषकर ‘हैवी रेअर अर्थ्स’ (Heavy Rare Earths) में। भारत का वैश्विक व्यापार में योगदान अत्यंत न्यून है, और विशाखापत्तनम में जापान के साथ एक सीमित संयुक्त उद्यम को छोड़कर कोई भी बड़ी पहल नहीं की गई है।
दुर्लभ पृथ्वी तत्वों का महत्व तेजी से बढ़ रहा है, क्योंकि ये इलेक्ट्रॉनिक्स, रक्षा और स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। ऐसे में भारत की निष्क्रियता उसे रणनीतिक रूप से पिछड़ने की स्थिति में डाल सकती है।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- भारत के पास वैश्विक दुर्लभ पृथ्वी ऑक्साइड भंडार का लगभग 6–7% हिस्सा है।
- मोनाजाइट रेत, भारत में REEs का मुख्य स्रोत है, जिसमें थोरियम भी होता है।
- चीन के पास लगभग 90% वैश्विक REE परिशोधन क्षमता है।
- REEs रक्षा, इलेक्ट्रॉनिक्स और हरित ऊर्जा तकनीकों के लिए रणनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
समग्र रूप से देखा जाए तो भारत में दुर्लभ पृथ्वी संसाधनों की कोई कमी नहीं है, परंतु खनन, प्रसंस्करण और नीति-निर्धारण के क्षेत्र में निष्क्रियता के कारण यह क्षेत्र पूरी तरह से उपयोग नहीं हो पाया है। यदि भारत वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहता है, तो उसे न केवल खनन बल्कि पूर्ण मूल्य श्रृंखला (value chain) को सुदृढ़ करना होगा।