‘बीज उत्सव’ से आदिवासी क्षेत्रों में जैव विविधता और बीज संप्रभुता की वापसी

राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात की त्रिसीमा पर स्थित आदिवासी अंचल में इस माह आयोजित चार दिवसीय ‘बीज उत्सव’ (Beej Utsav) ने पारंपरिक बीजों की कृषि सततता में भूमिका को उजागर किया। यह महोत्सव न केवल बीजों की विविधता का उत्सव था, बल्कि समुदाय-आधारित बीज प्रणाली को पुनर्जीवित करने का संकल्प भी बना।
बीजों की विरासत और सामुदायिक भागीदारी
60 से अधिक ग्राम पंचायतों में एक साथ आयोजित इस उत्सव में 9,400 से अधिक आदिवासी किसान, महिलाएं और बच्चे शामिल हुए। उन्होंने पारंपरिक बीजों को संरक्षित करने की तकनीकें सीखी और विभिन्न कृषि ऋतुओं में उनके उपयोग के तरीके समझे। ‘बीज संवाद’, जैव विविधता मेले, ‘सीड बॉल’ निर्माण और वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सहभागिता को प्रोत्साहन मिला।
इस आयोजन में उत्कृष्ट बीज संरक्षक किसानों को ‘बीज मित्र’ और ‘बीज माता’ जैसे सम्मान प्रदान किए गए, जिससे ग्रामीण समुदाय में परंपरागत ज्ञान के प्रति सम्मान और उत्साह बढ़ा।
जैव विविधता की पुनर्स्थापना
‘बीज उत्सव’ में प्रदर्शित किए गए बीजों में अनाज, दालें, फल और सब्ज़ियों की दुर्लभ और भूली-बिसरी किस्में शामिल थीं। इनमें ‘दूध मोगर’ (स्थानीय मक्का), ‘काली कमोद’ और ‘धिमरी’ जैसे धान की किस्में प्रमुख थीं। पारंपरिक फल बीजों में ‘जंगली आम’, ‘आकोल’, और ‘टिमरू’ जैसे फल सम्मिलित थे, जबकि सब्जियों में ‘करिंदा’, ‘छोटी करेला’ और ‘नारी भाजी’ जैसी किस्में विशेष आकर्षण रहीं।
इन बीजों का प्रयोग घरेलू उपभोग में किया जा रहा है, जिससे रसायन-मुक्त, पौष्टिक और स्थानीय खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा मिलता है।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- ‘बीज उत्सव’ तीन राज्यों की 60 से अधिक पंचायतों में एक साथ आयोजित हुआ।
- आयोजन में ‘बीज मित्र’ और ‘बीज माता’ जैसे सम्मान प्रदान कर बीज संरक्षक किसानों को मान्यता दी गई।
- ‘दूध मोगर’, ‘काली कमोद’, ‘नारी भाजी’ जैसी पारंपरिक बीज किस्मों को प्रदर्शित किया गया।
- आयोजन का नेतृत्व सामुदायिक संस्थाओं जैसे ‘कृषि एवं आदिवासी स्वराज संगठन’ और ‘वागधारा’ संस्था ने किया।
वागधारा संस्था के सचिव जयेश जोशी के अनुसार, “जब 70% छोटे किसान बाजार-आधारित संकर बीजों पर निर्भर हैं, ‘बीज उत्सव’ बीज संप्रभुता की पुनर्रचना का सशक्त स्मरण है।” बाज़ार में उपलब्ध बीजों के साथ महंगे दाम, रासायनिक उपयोग और स्वास्थ्य जोखिम जुड़े होते हैं, जिससे खेती अलाभकारी हो जाती है।
इस बीज उत्सव ने यह स्पष्ट किया कि यदि आदिवासी किसान अपनी जड़ों की ओर लौटें और सांस्कृतिक रूप से आधारित सामुदायिक प्रयासों में सहभागी बनें, तो जलवायु परिवर्तन और खाद्य असुरक्षा जैसी समस्याओं का समाधान संभव है।