धारा 498ए (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 85) पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला और ‘कूलिंग पीरियड’ विवाद

सुप्रीम कोर्ट ने 22 जुलाई 2025 को शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट (2022, मुकेश बंसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य) के उस निर्णय का समर्थन किया जिसमें वैवाहिक विवादों से जुड़े मामलों में प्राथमिकी (FIR) या मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत दर्ज होने के बाद दो माह का ‘कूलिंग पीरियड’ तय किया गया। इस दौरान कोई कठोर कार्रवाई नहीं होगी और मामला फैमिली वेलफेयर कमेटी (FWC) को भेजा जाएगा। हालांकि यह व्यवस्था पीड़िता के त्वरित न्याय के अधिकार को प्रभावित करती है और आपराधिक न्याय प्रणाली की स्वायत्तता पर प्रश्न उठाती है।

धारा 498ए का उद्देश्य और दुरुपयोग की आशंका

धारा 498ए को इस उद्देश्य से लाया गया था कि वैवाहिक जीवन में महिलाओं के साथ होने वाली क्रूरता को दंडित किया जा सके। लेकिन समय के साथ न्यायालयों ने पाया कि कई मामलों में इस प्रावधान का दुरुपयोग भी हो रहा है, खासकर FIR दर्ज कराने और तत्काल गिरफ्तारी के मामलों में। इसी कारण अदालतों ने ‘निर्दोष पति और उसके परिवार’ को बचाने के लिए प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों की व्यवस्था की।
सुप्रीम कोर्ट ने ललिता कुमारी मामले में वैवाहिक विवादों को FIR दर्ज करने से पहले ‘प्रारंभिक जांच’ की श्रेणी में रखा। हालिया आपराधिक कानून सुधारों में भी पति द्वारा क्रूरता के मामलों को FIR दर्ज करने से पूर्व प्रारंभिक जांच के अंतर्गत रखा गया है।

गिरफ्तारी पर नियंत्रण और न्यायिक दिशा-निर्देश

2008 में दंड प्रक्रिया संहिता में संशोधन कर गिरफ्तारी का सिद्धांत ‘आवश्यकता’ पर आधारित किया गया। अर्नेश कुमार (2014) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस की मनमानी गिरफ्तारी की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया और ‘नोटिस फॉर अपीयरेंस’ तथा चेकलिस्ट लागू की। आगे सतींदर कुमार अंतिल (2022) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया कि यदि गिरफ्तारी इन दिशा-निर्देशों के अनुरूप न हो, तो आरोपी को जमानत पर रिहा किया जाए।

NCRB आँकड़े और वास्तविक स्थिति

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट बताती है कि 2015 से 2016 तक धारा 498ए शीर्ष पाँच ‘गिरफ्तारी-आधारित अपराधों’ में रही। 2015 में जहाँ 1,13,403 मामले दर्ज हुए थे, वहीं 2022 में यह संख्या बढ़कर 1,40,019 हो गई। इसके बावजूद, गिरफ्तारियाँ 1,87,067 से घटकर 1,45,095 हो गईं। इसका अर्थ है कि गिरफ्तारी पर नियंत्रण के उपाय असरदार साबित हुए और आरोपी की स्वतंत्रता और पीड़िता के न्याय के अधिकार में संतुलन बनाने का प्रयास किया गया।

‘कूलिंग पीरियड’ और FWC: विवादास्पद पहल

‘कूलिंग पीरियड’ और FWC को मामले सौंपने की प्रक्रिया कई कारणों से आलोचना का विषय है। FIR दर्ज होने के बावजूद पीड़िता को दो माह तक कोई कार्रवाई न होने से न्याय में विलंब होता है। साथ ही, FWC की संवैधानिक अथवा वैधानिक वैधता स्पष्ट नहीं है। यह व्यवस्था न्यायिक प्रयोगवाद (Judicial Experimentalism) की तरह प्रतीत होती है।
ऐसा प्रयोग पहले भी 2017 में राजेश शर्मा मामले में किया गया था, जब सुप्रीम कोर्ट ने FWC गठित करने और मामलों को उनके पास भेजने का आदेश दिया। लेकिन समाज में इसे ‘पश्चगामी’ और ‘न्यायालय की सीमा से बाहर’ बताया गया। परिणामस्वरूप, 2018 में सोशल एक्शन फोरम फॉर मानव अधिकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इन निर्देशों को वापस ले लिया और पीड़िता के त्वरित न्याय के अधिकार को बहाल किया।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • धारा 498ए (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 85) विवाह संबंधी क्रूरता को दंडित करती है।
  • 2008 में CrPC में संशोधन कर गिरफ्तारी पर ‘आवश्यकता सिद्धांत’ लागू किया गया।
  • अर्नेश कुमार (2014) ने पुलिस की गिरफ्तारी शक्तियों पर अंकुश लगाया।
  • सोशल एक्शन फोरम फॉर मानव अधिकार (2018) ने राजेश शर्मा (2017) के FWC निर्देशों को रद्द किया।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *