क्लाउड और डिजिटल युग में वासेनार समझौते की प्रासंगिकता पर पुनर्विचार

क्लाउड और डिजिटल युग में वासेनार समझौते की प्रासंगिकता पर पुनर्विचार

आधुनिक इंटरनेट एक जटिल और विशाल कंप्यूटिंग संरचना पर आधारित है, जिसे कुछ ही वैश्विक कंपनियाँ नियंत्रित करती हैं। इनमें माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियाँ सरकारों की तकनीकी रीढ़ बन चुकी हैं। लेकिन जब इन सेवाओं का उपयोग इज़राइल द्वारा फिलीस्तीनी जनता के दमन में हुआ, तब यह सवाल उठा कि क्या मौजूदा निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाएँ ऐसी डिजिटल सेवाओं पर नियंत्रण रख पाने में सक्षम हैं, जिन्हें बनाते समय वे कल्पना भी नहीं कर सकती थीं।

वासेनार समझौते की सीमाएँ

वासेनार समझौता एक बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण तंत्र है, जो पारंपरिक हथियारों और दोहरे उपयोग (dual-use) वाली तकनीकों के प्रसार को रोकने के लिए बनाया गया था। यह एक स्वैच्छिक समन्वय ढांचा है जिसमें देश एक-दूसरे से तकनीकी सूचियाँ साझा करते हैं और कार्यान्वयन का दायित्व अपनी-अपनी सरकारों पर छोड़ते हैं।
2013 में इसमें “इंट्रूज़न सॉफ़्टवेयर” को शामिल किया गया, लेकिन इस व्यवस्था की संरचना ऐसे दौर में की गई थी जब तकनीकी नियंत्रण का अर्थ केवल हार्डवेयर के भौतिक निर्यात तक सीमित था। क्लाउड सेवाओं और SaaS (Software-as-a-Service) मॉडल में उपयोगकर्ता सेवा को दूरस्थ रूप से सक्रिय करता है, जिससे यह स्पष्ट नहीं होता कि यह निर्यात की श्रेणी में आता है या नहीं।
इसके अतिरिक्त, वासेनार समझौता आम सहमति के सिद्धांत पर आधारित है, जिससे कोई भी सदस्य बदलाव को रोक सकता है। इसके अलावा, तकनीकी नियंत्रण की घरेलू व्याख्याएँ और राजनीतिक इच्छाशक्ति देशों के बीच भिन्न होती है, जिससे इस व्यवस्था में कई कानूनी छिद्र (loopholes) उत्पन्न हो जाते हैं।

डिजिटल और क्लाउड तकनीकों के लिए वासेनार में सुधार की आवश्यकता

  • नई तकनीकों की परिभाषा में विस्तार: नियंत्रण सूची में ऐसी तकनीकों को स्पष्ट रूप से शामिल किया जाना चाहिए जो निगरानी, प्रोफाइलिंग, भेदभाव और सीमा-पार नियंत्रण को सक्षम करती हैं, जैसे क्षेत्रीय बायोमेट्रिक प्रणाली और पुलिसिंग से जुड़ी डेटा ट्रांसफर सेवाएँ।
  • ‘निर्यात’ की डिजिटल परिभाषा: API कॉल या रिमोट एक्सेस के ज़रिये सॉफ़्टवेयर को सक्रिय करना भी तकनीकी निर्यात माना जाना चाहिए, ताकि SaaS मॉडल पर प्रभावी नियंत्रण हो सके।
  • एंड-यूज़ आधारित नियंत्रण: तकनीक के उपयोग की अनुमति केवल तकनीकी विशेषताओं के आधार पर नहीं, बल्कि उपयोगकर्ता की पहचान, क्षेत्राधिकार, कानूनी ढांचा, और दुरुपयोग की संभावना के आधार पर दी जानी चाहिए।
  • बाध्यकारी (binding) तंत्र की आवश्यकता: वासेनार समझौते के स्वैच्छिक ढांचे के स्थान पर एक बंधनकारी संधि होनी चाहिए जिसमें न्यूनतम लाइसेंसिंग मानक, संवेदनशील क्षेत्रों में निर्यात पर प्रतिबंध और सहकर्मी समीक्षा शामिल हो।
  • वैश्विक समन्वय: क्लाउड सेवाएँ वैश्विक हैं; इसलिए देशों के बीच तकनीकी मानकों, एक साझा निगरानी सूची और “रेड अलर्ट” की त्वरित सूचना साझेदारी की व्यवस्था होनी चाहिए।
  • तकनीकी लचीलापन: एक विशेष तकनीकी समिति बनाकर वासेनार की प्रक्रिया को तेज और लचीला बनाया जाना चाहिए ताकि AI, साइबर हथियार और डिजिटल निगरानी से जुड़ी नई तकनीकों पर त्वरित नियंत्रण लागू किया जा सके।

भारत की भूमिका और चुनौतियाँ

भारत 2017 में वासेनार समझौते में शामिल हुआ और इसकी तकनीकी सूचियों को SCOMET ढांचे में शामिल किया। लेकिन अब तक भारत की भूमिका केवल वैश्विक वैधता प्राप्त करने तक सीमित रही है। समय की मांग है कि भारत इस मंच को क्लाउड और डिजिटल वास्तविकताओं के अनुरूप ढालने में नेतृत्व करे।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • वासेनार समझौते की स्थापना 1996 में हुई थी और इसका मुख्यालय हेग, नीदरलैंड्स में है।
  • इसका उद्देश्य पारंपरिक हथियारों और दोहरे उपयोग की तकनीकों के प्रसार को रोकना है।
  • भारत 2017 में इस समझौते का 42वाँ सदस्य बना।
  • 2013 में “इंट्रूज़न सॉफ़्टवेयर” को नियंत्रण सूची में जोड़ा गया था।
Originally written on October 3, 2025 and last modified on October 3, 2025.

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