केराटोकोनस का इलाज भी नहीं रोक सका रोग की प्रगति: एलवी प्रसाद और ऑस्ट्रेलियाई अस्पताल का खुलासा

नेत्र रोग से जुड़ी एक महत्वपूर्ण खोज में एलवी प्रसाद आई इंस्टीट्यूट (हैदराबाद) और रॉयल विक्टोरियन आई एंड ईयर हॉस्पिटल (मेलबर्न) द्वारा किए गए संयुक्त अध्ययन में यह सामने आया है कि केराटोकोनस जैसे दृष्टि को प्रभावित करने वाले रोग का इलाज कई बार अपेक्षित रूप से सफल नहीं होता। इस शोध में पाया गया कि जिन रोगियों की कॉर्निया इलाज से पहले अत्यधिक ढलवां (steep) होती है, उनमें रोग के आगे बढ़ने की संभावना अधिक होती है, भले ही इलाज किया गया हो।
केराटोकोनस क्या है और क्यों होता है खतरनाक?
केराटोकोनस एक नेत्र रोग है जिसमें आंख की पारदर्शी सामने की सतह — कॉर्निया — कमजोर और पतली होकर शंकु के आकार में बाहर की ओर उभर आती है। इससे दृष्टि धुंधली, टेढ़ी-मेढ़ी और विकृत हो जाती है। यह बीमारी आमतौर पर किशोरावस्था में शुरू होती है और पुरुषों में अधिक देखी जाती है।
कोलेजन क्रॉस-लिंकिंग (CXL): प्रमुख उपचार, लेकिन सीमाएं मौजूद
इस रोग का मुख्य उपचार ‘कोलेजन क्रॉस-लिंकिंग’ (CXL) नामक प्रक्रिया है, जो कॉर्निया की मजबूती बढ़ाकर केराटोकोनस की प्रगति को रोकती है। लेकिन अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि यह तकनीक हर मरीज के लिए प्रभावशाली नहीं होती, विशेषकर तब जब रोग पहले से ही उन्नत अवस्था में हो।
अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष
यह अध्ययन अमेरिका स्थित ‘कोर्निया’ नामक प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ है। इसमें उन मरीजों की तुलना की गई जिनका रोग इलाज के बाद बढ़ा और जिनकी स्थिति स्थिर रही।
- कुल 31 आंखों (30 मरीजों) में CXL के बाद भी केराटोकोनस की प्रगति देखी गई, जबकि 40 आंखों (32 मरीजों) में 5 वर्षों तक स्थिति स्थिर रही।
- जिन मरीजों की कॉर्निया इलाज से पहले अत्यधिक उभरी हुई थी, उनमें रोग की वापसी की संभावना अधिक पाई गई।
- 31 में से 20 आंखों को दोबारा CXL दिया गया, जिससे स्थिति 3 वर्षों तक स्थिर रही।
- शेष 11 आंखों की हालत इतनी गंभीर थी कि उन्हें आंशिक या पूर्ण कॉर्नियल ट्रांसप्लांट की आवश्यकता पड़ी।
- रोग की गंभीरता के अलावा, उम्र या एलर्जिक नेत्र रोगों का CXL की सफलता पर कोई खास असर नहीं पड़ा।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- केराटोकोनस का पहला चिकित्सकीय वर्णन 18वीं सदी में हुआ था।
- कोलेजन क्रॉस-लिंकिंग प्रक्रिया को पहली बार जर्मनी में वर्ष 2003 में क्लीनिकल उपयोग में लाया गया।
- कॉर्नियल ट्रांसप्लांट को ‘केराटोप्लास्टी’ भी कहा जाता है, जो भारत में सीमित केंद्रों में ही किया जाता है।
- LVPEI भारत का एक प्रमुख नेत्र अनुसंधान संस्थान है, जिसे WHO की मान्यता प्राप्त है।