ओडिशा की ‘डोंगर’ खेती संकट में: यूकेलिप्टस के बढ़ते प्रभुत्व से आदिवासी कृषि पर संकट

ओडिशा के रायगढ़ा ज़िले की पहाड़ियों पर निवास करने वाली कोंध आदिवासी समुदाय सदियों से ‘डोंगर’ नामक परंपरागत कृषि पद्धति का पालन करती आई है। यह खेती पहाड़ी ढलानों पर होती है, जहाँ मिलेट्स, दालें और तिलहन जैसी कई फसलें एक साथ उगाई जाती हैं। यह प्रणाली न केवल पारंपरिक है, बल्कि जलवायु के प्रति लचीली भी है। लेकिन आज यह सांस्कृतिक धरोहर तेजी से खतरे में है, और इसका मुख्य कारण है यूकेलिप्टस की बढ़ती एकल फसली खेती, जिसे कागज़ मिलों की मांग के चलते ज़ोर-शोर से फैलाया जा रहा है।
एकल खेती का वर्चस्व और पारंपरिक कृषि पर असर
यूकेलिप्टस की खेती, जो पहले केवल मैदानी इलाकों तक सीमित थी, अब मध्यवर्ती और ऊपरी ढलानों तक पहुँच चुकी है। इससे डोंगर भूमि पर बोई जाने वाली परंपरागत फसलें जैसे कंद मूल, मिलेट्स और अन्य असिंचित खाद्य स्रोत घटते जा रहे हैं। रायगढ़ा के फील्ड समन्वयक जगन्नाथ मांझी के अनुसार, यूकेलिप्टस उगाए जाने वाले क्षेत्रों में पक्षी भी नहीं आते, जिससे स्थानीय पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
कृषकों को इन भूमियों के लिए बहुत कम किराया मिलता है — कभी-कभी केवल ₹1,500 से ₹3,000 प्रति एकड़। इस कारण न केवल उनकी खाद्य सुरक्षा प्रभावित होती है, बल्कि मृदा की उर्वरता और जल स्रोतों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।
पारंपरिक खेती की रक्षा में प्रयास
‘लिविंग फार्म्स’ नामक गैर-लाभकारी संस्था रायगढ़ा के लगभग 200 गांवों में टालिया कोंध और कुटिया कोंध समुदायों के साथ मिलकर डोंगर खेती के संरक्षण के लिए काम कर रही है। संस्था के कार्यकर्ता गांवों में जाकर यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह परंपरागत प्रणाली जलवायु परिवर्तन के दौर में अधिक टिकाऊ और सुरक्षित है। साथ ही, वे किसानों को रासायनिक खेती के बजाय बीज संरक्षण और जैविक खेती की ओर वापस लौटने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
संस्था के सदस्य बिचित्रा बिस्वाल बताते हैं कि यदि यह एकल खेती इसी तरह बढ़ती रही, तो कोंध समुदाय को निकट भविष्य में खाद्य संकट का सामना करना पड़ सकता है। उनके अनुसार, डोंगर खेती न केवल खाद्य संप्रभुता को बनाए रखने में सहायक है, बल्कि जंगलों के संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
खबर से जुड़े जीके तथ्य
- डोंगर एक मिश्रित फसल प्रणाली है, जिसमें मिलेट्स, दालें और तिलहन एक साथ उगाई जाती हैं।
- यूकेलिप्टस की फसल को तैयार होने में लगभग 5 वर्ष लगते हैं, लेकिन इसका किराया आदिवासी किसानों को बहुत कम मिलता है।
- यूकेलिप्टस की खेती से पक्षी और जैव विविधता में गिरावट देखी गई है।
- अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष 2023 में मनाया गया, लेकिन उसी समय इन पारंपरिक अनाजों को एकल फसल प्रणाली द्वारा विस्थापित किया जा रहा था।
पारंपरिक ज्ञान का पुनर्जीवन और भविष्य की राह
डोंगर खेती केवल एक कृषि प्रणाली नहीं, बल्कि कोंध समुदाय की जीवनशैली, आत्मनिर्भरता और जैव विविधता का प्रतीक है। एक समय था जब बीज और श्रम का आदान-प्रदान आदिवासी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हुआ करता था। आज आवश्यकता है कि इन परंपराओं को पुनर्जीवित किया जाए।
राज्य सरकारों और नीति-निर्माताओं को चाहिए कि वे आदिवासी समुदायों की पारंपरिक कृषि को संरक्षित करने हेतु स्पष्ट रणनीति बनाएं। केवल कागज़ उद्योग की मांग के लिए यूकेलिप्टस जैसी फसलों को बढ़ावा देना, पारिस्थितिकीय और सामाजिक दृष्टिकोण से दीर्घकालीन संकट को जन्म दे सकता है।
डोंगर जैसी प्रणालियाँ, जो कम पानी में, बिना रासायनिक खादों के पोषक और विविध आहार प्रदान करती हैं, भविष्य की सतत कृषि का आधार बन सकती हैं — बशर्ते उन्हें पहचान, संरक्षण और प्रोत्साहन दिया जाए।